उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र ने उसे 'शाहजी' कहकर सम्बोधन किया। उसने हमें बैठने का इशारा किया और हाथ उठाकर इन्द्र को गाँजे का साज-सरंजाम और चिलम दिखा दी। इन्द्र ने कुछ कहे बगैर ही उसके आदेश का पालन करना शुरू कर दिया। जब चिलम तैयार हुई तब शाहजी, खाँसी से बेदम होने पर भी, मानो 'चाहे मरुँ चाहे बचूँ' का प्रण करके, दम खींचने लगा और रत्ती भर भी धुआँ कहीं से बाहर न निकल जाय, इस आशंका के मारे उसने अपनी बाईं हथेली से नाक और मुँह अच्छी तरह दबा लिया, फिर सिर के एक झटके के साथ उसने चिलम इन्द्र के हाथ में दे दी और कहा, “पियो।”
इन्द्र ने चिलम पी नहीं। धीरे-से उसे नीचे रखते हुए कहा, “नहीं।” शाहजी ने अत्यन्त विस्मित होकर कारण पूछा, किन्तु उत्तर के लिए एक क्षण की भी प्रतीक्षा नहीं की। फिर स्वयं ही उसे उठा लिया और खींच-खींचकर नि:शेष करके उलटकर रख दिया! इसके बाद दोनों के बीच कोमल स्वर में बातचीत शुरू हुई जिसमें से अधिकांश को न तो मैं सुन सका और न समझ ही सका। किन्तु एक बात को मैंने लक्ष्य किया कि शाहजी हिन्दी बोलते रहे और इन्द्र ने बंगला छोड़ और किसी भाषा का व्यवहार न किया।
शाहजी का कंठ-स्वर क्रम-क्रम से गर्म हो उठा और देखते ही देखते वह पागलों की-सी चिल्लाहट में परिणत हो गया। इन्द्र को उद्देश्य करके वह जो गाली-गलौज करने लगा वह ऐसी थी कि न सुनी जा सकती है और न सही। इन्द्र ने तो उसे सह लिया परन्तु मैं कभी नहीं सहता। इसके बाद वह बेंड़े के सहारे बैठ गया और दम-भर बाद ही गर्दन झुका करके सो गया। दोनों जनों के, कुछ देर तक, वैसे ही चुपचाप बैठे रहने के कारण मैं ऊब उठा और बोला, “समय जा रहा है, तुम्हें क्या वहाँ नहीं जाना?”
“कहाँ श्रीकान्त?”
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