उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
श्मशान के उसी सँकरे घाट के पास, बड़ के वृक्ष की जड़ों से, नाव को बाँधकर जब हम दोनों रवाना हुए तब बहुत दिन बाकी था। कुछ दूर चलने पर, दाहिनी तरफ, वन के भीतर अच्छी तरह देखने से एक रास्ता-सा दिखाई दिया। उसी से होकर इन्द्र ने अन्दर प्रवेश किया। करीब दस मिनट चलने के बाद एक पर्णकुटी दिखाई दी। नजदीक जाकर देखा कि भीतर जाने का रास्ता एक बेंड़े से बन्द है। इन्द्र ने सावधानी से, उसका बन्धन खोलकर, प्रवेश किया; और मुझे अन्दर लेकर फिर उसे उसी तरह बाँध दिया। मैंने वैसा वास-स्थान अपने जीवन में कभी नहीं देखा। एक तो चारों तरफ निबिड़ जंगल, दूसरे सिर के ऊपर एक प्रकाण्ड इमली और पाकर के वृक्ष ने सारी जगह को मानो अन्धकारमय कर रक्खा था। हमारी आवाज पाकर मुर्गियाँ और उनके बच्चे चीत्कार कर उठे। एक तरफ बँधी हुई दो बकरियाँ मिमियाँ उठीं। ध्यान से सामने देखा तो- अरे बाबा! एक बड़ा भारी अजगर, टेढ़ा-मेढ़ा होकर, करीब-करीब सारे आँगन को व्याप्त करके पड़ा है! पल-भर में एक अस्फुट चीत्कार करके मुर्गियों को और भी भयभीत करता हुआ, मैं एकदम उस बेंड़े पर चढ़ गया। इन्द्र खिल-खिलाकर हँस पड़ा, बोला, “यह किसी से नहीं बोलता है रे, बड़ा भला साँप है- इसका नाम है रहीम।” इतना कहकर वह उसके पास गया और उसने उसे, पेट पकड़कर आँगन की दूसरी ओर, खींचकर सरका दिया। तब मैंने बेंड़े पर से उतरकर दाहिनी ओर देखा। उस पर्णकुटी के बरामदे में बहुत-सी फटी चटाइयों और फटी कथरियों के बिछौने पर बैठा हुआ एक दीर्घकाय दुबला-पतला मनुष्य प्रबल खाँसी के मारे हाँफ रहा है। उसके सिर की जटाएँ ऊँची बँधी हुई थीं और गले में विविध प्रकार की छोटी-बड़ी मालाएँ पड़ी थीं। शरीर के कपड़े अत्यन्त मैले और एक प्रकार के हल्दी के रंग में रँगे हुए थे। उसकी लम्बी दाढ़ी कपड़े की एक चिन्दी के जटा के साथ बँधी हुई थी। पहले तो मैं उसे पहिचान नहीं सका; परन्तु पास में आते ही पहिचान गया कि वह सँपेरा है। पाँच-छ: महीने पहले मैं उसे करीब-करीब सभी जगह देखा करता था। हमारे घर भी वह कई दफे साँप का खेल दिखाने आया है।
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