उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
“मैं क्या ऐसा बेवकूफ हूँ जीजी।” इतना कहकर उसने अपनी धोती का छोर खींचकर कमर में से सूत से बँधी हुई एक सूखी जड़ी दिखाकर कहा, “यह देख जीजी, पूरी सावधानी के साथ बाँध रखी है। यदि यह न होती तो क्या आज वह मुझे काटे बिना छोड़ देता? शाहजी के पास से इसे प्राप्त करने में क्या मुझे कम कष्ट उठाने पड़े हैं? इसके होते हुए तो मुझे कोई भी नहीं काट सकता, और यदि काट भी लेता- तो भी क्या बिगड़ता? शाहजी को तुरंत ही जगाकर उनसे जहर-मोहरा लेकर कटी जगह पर रख देता। अच्छा, जीजी, यह जहर-मोहरा कितनी देर में सब विष खींच लेता है? आधा घण्टे में? एक घण्टे में? नहीं, इतनी देर न लगती होगी, क्यों जीजी?”
जीजी, किन्तु उसी तरह, चुपचाप देखती रहीं। इन्द्र उत्तेजित हो गया था, बोला, “आज दो न जीजी मुझे एक जहर-मोहरा-तुम्हारे पास तो दो-तीन पड़े हैं- कितने दिनों से मैं माँग रहा हूँ।” फिर उत्तर के लिए प्रतीक्षा किये बगैर ही वह क्षुब्ध अभिमान के स्वर में उसी क्षण बोल उठा, “मुझसे तो तुम लोग जो भी कहते हो मैं वही कर देता हूँ- पर तुम लोग मुझे हमेशा झाँसा देकर कहते हो, आज नहीं कल, कल नहीं परसों-यदि नहीं देना है तो साफ क्यों नहीं कह देते? मैं फिर नहीं आऊँगा- जाओ।”
इन्द्र ने लक्ष्य नहीं किया, किन्तु मैंने जीजी की तरफ देखते हुए खूब अनुभव किया कि उनका मुख, किसी असीम व्यथा और लज्जा के कारण, मानो एकदम काला हो गया है। किन्तु दूसरे ही क्षण कुछ हँसी का भाव अपने सूखे होठों पर जबर्दस्ती लाकर उन्होंने कहा, “हाँ रे इन्द्र, क्या तू अपनी जीजी के यहाँ सिर्फ साँप के मन्त्र और जहर-मोहरा के लिए ही आया करता है?”
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