उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र नि:संकोच होकर बोल उठा, “और नहीं तो क्या!” फिर निद्रित शाहजी की ओर तिरछी नजर से देखकर बोला, “किन्तु वह मुझे हमेशा झाँसा ही देते रहते हैं- इस तिथि को नहीं, उस तिथि को नहीं-केवल वह एक झाड़ने का मन्त्र दिया था, बस और कुछ देना ही नहीं चाहते। किन्तु, आज मुझे खूब मालूम हो गया है जीजी, कि तुम भी कुछ कम नहीं हो - तुम भी सब जानती हो। अब और उनकी खुशामद नहीं करूँगा जीजी, तुम्हारे पास से ही सब मन्त्र सीख लूँगा।” इतना कहकर उसने मेरी ओर देखा और फिर सहसा एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर शाहजी को लक्ष्य करके उनके प्रति आदर का भाव प्रकट करते हुए कहा, “शाहजी गाँजा-वाँजा जरूर पीते हैं श्रीकान्त, किन्तु तीन दिन के मरे हुए मुर्दे को आधा घण्टे के भीतर ही उठाकर खड़ा कर सकते हैं- इतने बड़े उस्ताद हैं ये! हाँ जीजी, तुम भी तो मुर्दे को जिला सकती हो?”
जीजी कुछ देर चुपचाप देखती रहीं और फिर एकाएक खिलखिलाकर हँस पड़ीं। वह कितना मधुर हास था! इस तरह मैंने बहुत ही थोड़े लोगों को हँसते देखा है; किन्तु वह हास, मानो निबिड़ मेघों से भरे हुए आकाश की बिजली को चमक की तरह, दूसरे ही क्षण अन्धकार में विलीन हो गया।
किन्तु इन्द्र ने उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया, वह एकदम जीजी के गले पड़ गया और बोला, “मैं जानता हूँ कि तुम्हें सब मालूम है; परन्तु मैं कहे देता हूँ कि एक-एक करके तुम्हें अपनी सब विद्याएँ देनी होंगी। जितने दिन जाऊँगा उतने दिन तुम्हारा पूरा गुलाम होकर रहूँगा। तुमने कितने मुर्दे जिलाए हैं जीजी?”
जीजी बोली, “मैं तो मुर्दे जिलाना जानती नहीं, इन्द्रनाथ!”
इन्द्र ने पूछा, “तुम्हें शाहजी ने यह मन्त्र नहीं दिया?” जीजी ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं।” इन्द्र, मिनट-भर तक उनके मुँह की ओर देखते रहने के उपरान्त, स्वयं भी अपना सिर हिलाते-हिलाते बोला, “यह विद्या क्या कोई शीघ्र देना चाहता है जीजी? अच्छा, कौड़ी चलाना तो तुमने निश्चय ही सीख लिया होगा?”
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