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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


जीजी बोली, “कौड़ी चलाना किसे कहते हैं, सो भी तो मैं नहीं जानती भाई।”

इन्द्र को विश्वास नहीं हुआ। वह बोला, “हुश्, जानती कैसे नहीं! नहीं दूँगी, यही कह दो न!” फिर मेरी ओर देखकर बोला, “कौड़ी चलाना कभी देखा है श्रीकान्त? दो कौड़ियाँ मन्त्र पढ़कर छोड़ दी जाती हैं, वे जहाँ साँप होता है वहाँ जाकर उसके सिर पर जा चिपटती हैं और उसे दस दिन तक के रास्ते से खींच लाकर हाजिर कर देती हैं। ऐसा ही मन्त्र का जोर है! अच्छा जीजी, घर बाँधना, देह-बाँधना, धूल पढ़ना- यह सब तो तुम जानती हो न? यदि जानती न होतीं, तो इस तरह साँप को कैसे पकड़ लेतीं?” इतना कहकर वह जिज्ञासु-दृष्टि से जीजी के मुँह की ओर देखने लगा।

जीजी ने बहुत देर तक सिर झुकाए हुए चुपचाप मन ही मन मानो कुछ सोच लिया और फिर मुँह उठाकर धीरे से कहा, “इन्द्र, तेरी जीजी के पास ये सब विद्याएँ कानी-कौड़ी की भी नहीं हैं किन्तु; क्यों नहीं है, सो यदि तू विश्वास करे भाई, तो आज तेरे आगे सब बातें खोलकर अपनी छाती का बोझ हलका कर डालूँ। बोलो, तुम लोग आज मेरी सब बातों पर विश्वास करोगे?” बोलते-बोलते ही उनके पिछले शब्द एक तरह से कुछ भारी-से हो उठे।

अभी तक मैं प्राय: कुछ भी न बोला था। इस दफे, सबसे आगे जोर से बोल उठा, “मैं तुम्हारी सब बातों पर विश्वास करूँगा जीजी! सब पर- जो तुम कहोगी, सब पर। एक भी बात पर अविश्वास न करूँगा।”

मेरी ओर देखकर वे कुछ हँसीं और बोलीं, “विश्वास क्यों न करोगे भाई, तुम भले घरों के लड़के जो ठहरे! इतर (छोटे) लोग ही अनजान अपरिचित लोगों की बात में सन्देह करते और भय से पीछे हट जाते हैं। सिवाय इसके मैंने तो कभी झूठ बोला नहीं भाई!” इतना कहकर उन्होंने एक दफे सिर हमारी ओर देखकर म्लान भाव-से थोड़ा-सा हँस दिया।

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