उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
पास में ही एक किरासन की डिबिया जल रही थी। मैंने उसी के प्रकाश में देखा, जीजी का मुँह मुर्दे के समान सफेद हो गया है। वे भय और संकोच के साथ बोलीं, “हम लोग मदारी जो हैं भाई - ठगना ही तो हमारा व्यवसाय है।”
“तुम्हरा व्यवसाय मैं अभी सब बाहर निकाले देता हूँ - चल रे श्रीकान्त, इन साले धूर्तों की छाया से भी बचना चाहिए। हरामजादे, बदजात, धूर्त, बदमाश!” यह कहकर इन्द्र सहसा मेरा हाथ पकड़कर और जोर से एक झटका देकर खड़ा हो गया और जरा भी विलम्ब किये बिना मुझे खींच ले गया।
इन्द्र को दोष नहीं दिया जा सकता; क्योंकि उसकी बहुत दिनों की बड़ी-बड़ी आशाएँ, मानो पलक मारते ही, भूमिसात हो गयी थीं। किन्तु मैं अपनी दोनों आँखों को जीजी की उन आँखों की ओर से फिर न लौटा सका। मैं बलपूर्वक इन्द्र से अपना हाथ छुड़ाकर पाँच रुपये सामने रखते हुए बोला, “तुम्हारे लिए लाया था जीजी-इन्हें ले लो।”
इन्द्र ने झपटकर उन्हें उठा लिया और कहा, “अब और रुपये! धूर्तता से इन्होंने मुझसे कितने रुपये लिये हैं, सो क्या तुझे मालूम है श्रीकान्त? मैं तो अब यही चाहता हूँ कि ये लोग बिना खाए-पिए सूखकर मर जाँय।”
मैंने उसका हाथ दबाकर कहा, “नहीं इन्द्र, दे देने दो - मैं ये जीजी के लिए ही लाया हूँ?”
“ओ:, बड़ी आई तेरी जीजी!” कहकर वह मुझे खींचकर बेंड़े के पास घसीट लाया!
इतने में इस गोल माल से शाहजी का नशा उचट गया। “क्या हुआ! क्या हुआ!” कहते हुए वह उठ बैठा।
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