उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र मुझे छोड़कर उसकी ओर बढ़ गया और बोला, “डाकू साले! कभी रास्ते में देख पाया तो चाबुक से तेरी पीठ का चमड़ा उधेड़ दूँगा।”
“क्या हुआ?”
“बदमाश साला, जानता कुछ भी नहीं, फिर भी कहता फिरता है, मन्त्र के जोर से मुर्दे जिलाता हूँ! यदि कभी रास्ते पर दिखाई दिया तो अबकी बार अच्छी तरह 'देखूँगा तुझे?” इतना कहकर उसने एक ऐसा अशिष्ट इशारा किया जिससे कि शाहजी चौंक उठा।
एक तो नशे की खुमारी फिर अकस्मात् यह अचिन्तय काण्ड। इससे यह 'किंतर्कव्य-विमूढ़' हो गया और उसी भाव से टुकुर-टुकुर देखने लगा।
इन्द्र मुझे लेकर जब तक द्वार के बाहर आया, तब तक शायद वह कुछ होश में आकर शुद्ध बंगाली में पुकार उठा, “सुन इन्द्रनाथ, क्या हुआ है बोल तो?” यह पहले ही पहल मैंने उसे बंगाली में बोलते सुना।
इन्द्र लौटकर बोला, “जन्त्र-मन्त्र तुम कुछ नहीं जानते, फिर क्यों' झूठ मूठ मुझे धोखा देकर इतने दिनों तक रुपया ऐंठते रहे? इसका जवाब दो!”
वह बोला, “नहीं जानता, यह तुमसे किसने कहा?”
इन्द्र ने उसी क्षण उस स्तब्ध नतमुखी जीजी की ओर हाथ बढ़ाकर कहा, “इन्होंने कहा कि तुम्हारे पास कानी कौड़ी की भी विद्या नहीं है। विद्या है सिर्फ धूर्तता की और लोगों को ठगने की। यही तुम लोगों का व्यवसाय है! मिथ्यावादी, चोर!”
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