उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
शाहजी-शरीर से अत्यन्त बलवान था, किन्तु उसे पता न था कि इन्द्र उससे भी कितना अधिक बली है। यदि होता तो शायद वह इतने बड़े दु:साहस का परिचय न देता। देखते ही देखते इन्द्र उसे चित्त करके उसकी छाती पर चढ़ बैठा और उसकी गर्दन को जोर से दबोचने लगा। वह ऐसा दबोचना था कि यदि मैं बाधा न देता तो, शायद, शाहजी का मदारी-जीवन उसी समय समाप्त हो जाता।
बहुत खींच-तान के बाद जब मैंने दोनों को पृथक किया तब इन्द्र की अवस्था देखकर डर के मारे एकदम रो दिया। पहले मैं अन्धकार में देख न सका था कि उसके सब कपड़े खून से तर-ब-तर हो रहे हैं। इन्द्र हाँफते-हाँफते बोला, “साले गँजेड़ी ने मुझे साँप मारने का बर्छा मारा है- यह देख?” कुरते की आस्तीन उठाकर उसने बताया, भुजा में करीब दो-तीन इंच गहरा घाव हो गया है, और उसमें से लगातार खून बह रहा है।
इन्द्र बोला, “रो मत, इस कपड़े से मेरे घाव को खूब खींचकर बाँध दे। अरे खबरदार! ठीक ऐसा ही बैठा रह, उठा तो गले पर पैर रखकर तेरी जीभ खींचकर बाहर निकाल लूँगा, हरामजादे सूअर! ले इन्द्र, तू खींचकर बाँध, देरी न कर।” इतना कहकर उसने चर्र-चर्र अपनी धोती के छोर का एक अंश फाड़ डाला। मैं काँपते हाथों से घाव को बाँधने लगा और शाहजी निकट ही, आसन्न मृत्यु विषैले सर्प की तरह, बैठा हुआ, चुपचाप देखने लगा।
इन्द्र बोला, “नहीं, तेरा विश्वास नहीं है, तू खून कर डालेगा। मैं तेरे हाथ बाँधूँगा।” यह कहकर उसने उसी की गेरुए रंग की पगड़ी से खींच-खींचकर उसके दोनों हाथ खूब कसकर बाँध दिए। उसने कोई बाधा नहीं दी, प्रतिवाद नहीं किया, जरा-सी चूँ-चपड़ भी न की।
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