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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


जिस लाठी के प्रहार से जीजी बेहोश हो गयी थीं उसे उठाकर एक तरफ रखते हुए इन्द्र बोला, “कैसा नमकहराम शैतान है यह साला! मैंने इसे अपने पिता के न जाने कितने रुपये चुराकर दिए हैं, और यदि जीजी ने सिर की कसम रखाकर रोका न होता तो और भी देता। इतने पर भी यह मुझे बर्छी मार बैठा! श्रीकान्त, इस पर नजर रख जिससे यह उठ न बैठे - मैं जीजी की आँखों और चेहरे पर जल के छींटे देता हूँ।”

पानी के छींटे देकर हवा करते हुए वह बोला, “जिस दिन जीजी ने कहा कि इन्द्रनाथ तेरे कमाए हुए पैसे होते तो मैं ले लेती - किन्तु इन्हें लेकर मैं अपना इहलोक-परलोक मिट्टी न करूँगी।' उस दिन से अब तक इस शैतान के बच्चे ने उन्हें कितनी मार मारी है, इसका कोई हिसाब नहीं। इतने पर भी जीजी लकड़ी ढोकर कंडे बेचकर किसी तरह इसे खिलाती-पिलाती हैं, गाँजे के लिए पैसे देती हैं - फिर भी यह उनका अपना न हुआ। किन्तु अब मैं इसे पुलिस के हाथ में दूँगा, तब छोड़ूँगा - नहीं तो यह जीजी का खून कर डालेगा, यह खून कर सकता है।”

मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मानो वह मनुष्य इस बात से सिहर उठा और सिर उठाकर उसे तुरंत नीचा कर लिया। यह सब निमेष-भर में ही हो गया। किन्तु अपराधी की निबिड़ आशंका मैंने उसके चेहरे पर इस प्रकार परिस्फुट होती हुई देखी कि उसका उस समय का वह चेहरा मुझे आज भी साफ-साफ याद आ जाता है।

मैं अच्छी तरह जानता हूँ, कि इस कहानी को, जिसे कि आज मैं लिख रहा हूँ, इतना ही नहीं कि सत्य मानकर ग्रहण करने में लोग दुविधा करेंगे परन्तु इसे विचित्र कल्पना कहकर उपहास करने में भी शायद संकोच न करेंगे। फिर भी, यह सब कुछ जानते हुए भी, मैंने इसे लिखा है और यही मेरी अभिज्ञता का सच्चा मूल्य है। क्योंकि सत्य के ऊपर खड़े हुए बगैर, किसी भी तरह यह सब कथा मुँह से बाहर नहीं निकाली जा सकती। पग-पग पर डर लगता है कि लोग इसे हँसी में न उड़ा दें। जगत में वास्तविक घटनाएँ कल्पना को भी बहुत दूर पीछे छोड़ जाती हैं - यह कैफियत, स्वयं उसे लेखबद्ध करने में, किसी तरह की मदद नहीं करती, बल्कि हाथ की कलम को बार-बार खींचकर रोकती है।

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