उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
पर जाने दो इस बात को। जीजी जब आँखें खोलकर उठ बैठीं तब शायद आधी रात हो गयी थी। उनकी विह्वलता दूर होते और भी एक घण्टा बीत गया। इसके बाद हमारे मुँह से सारा वृत्तान्त सुनकर वे उठकर धीरे-धीरे खड़ी हो गयीं और शाहजी को बन्धन-मुक्त करके बोलीं, “जाओ; अब सो रहो।”
उसके चले जाने के उपरान्त उन्होंने इन्द्र को पास बुलाकर और उसका दाहिना हाथ अपने सिर पर रखकर कहा, “इन्द्र, मेरे इस सिर पर हाथ रखकर शपथ तो कर भाई, कि अब फिर कभी तू इस घर में न आयेगा। हमारा जो होना हो सो हो, तू अब कोई खबर न लेना।”
इन्द्र पहले तो अवाक् हो रहा; परन्तु दूसरे ही क्षण आग की तरह जल उठा और बोला, “ठीक ही तो है! मेरा खून किये डालता था, सो तो कुछ भी नहीं। और मैंने जो उसे थोड़ी देर के लिए बाँध दिया, सो इस पर तुम्हारा इतना गुस्सा! ऐसा न हो तो फिर यह कलियुग ही क्यों कहलावे! परन्तु तुम दोनों कितने नमकहराम हो! आ रे श्रीकान्त, चलें, बस हो चुका।”
जीजी चुप हो रहीं - उन्होंने इस अभियोग का जरा भी प्रतिवाद नहीं किया। क्यों नहीं किया सो, पीछे मैंने चाहे जितना क्यों न समझा हो, परन्तु उस समय मैं बिल्कुल न समझ सका। तथापि मैं अलक्ष्य रूप से चुपचाप वे पाँच रुपये वहीं खम्भे के पास रखकर इन्द्र के पीछे-पीछे चल दिया। आँगन के बाहर आकर इन्द्र चिल्लाकर बोला, “हिन्दू की लड़की होकर जो एक मुसलमान के साथ भाग आती है, उसका धर्म-कर्म ही क्या! चूल्हे में चली जाय, अब मैं न कोई खोज ही करूँगा और न खबर ही लूँगा। हरामजादा, नीच कहीं का!” यह कहकर वह तेजी से उस वन-पथ को लाँघकर चल दिया।
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