उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
हम दोनों नाव में आकर बैठ गये, इन्द्र चुपचाप नाव खेने लगा और बीच-बीच में हाथ उठा-उठाकर आँखें पोंछने लगा। यह साफ-साफ समझकर कि वह रो रहा है, मैंने और कोई भी प्रश्न नहीं किया।
श्मशान के उसी रास्ते से मैं लौट आया और उसी रास्ते अब भी चला जा रहा हूँ, परन्तु न मालूम क्यों, आज मेरे मन में भय की कोई बात ही नहीं आती। मालूम होता है, शायद, उस समय मन इतना विह्वल और इतना ढँका हुआ था कि इतनी रात को किस तरह घर में घुसूँगा और घुसने पर क्या दशा होगी, इसकी चिन्ता भी उसमें स्थान न पा सकी।
प्राय: पिछली रात को नाव घाट पर आ लगी। मुझे उतारकर इन्द्र बोला, “घर चला जा श्रीकान्त, तू बड़ा अपशकुनिया है। तुझे साथ लेने से एक न एक फसाद उठ खड़ा होता है। आज से अब तुझे किसी भी कार्य के लिए न बुलाऊँगा- और तू भी अब मेरे सामने न आना। जा, चला जा।” इतना कहकर वह गहरे पानी में नौका ठेलकर देखते ही देखते घुमाव की तरफ अदृश्य हो गया। विस्मित, व्यथित और स्तब्ध होकर मैं निर्जन नदी के तीर पर अकेला खड़ा रह गया।
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निस्तब्ध गम्भीर रात में पाता गंगा के किनारे बिल्कुल अकारण ही, जब इन्द्र मुझे बिल्कुल अकेला छोड़कर चला गया, तब मैं रुलाई को और न सँभाल सका। उसे मैं प्यार करता हूँ, इसका उसने कोई मूल्य ही नहीं समझा। दूसरे के घर में रहते हुए कठोर शासन-जाल की उपेक्षा करके, उसके साथ गया, इसकी भी उसने कोई कद्र नहीं की। सिवाय इसके, मुझे अपशकुनिया अकर्मण्य कहकर और अकेले असहाय अवस्था में विदा करके, बेपरवाही से चला गया। उसकी यह निष्ठुरता मुझे कितनी अधिक चुभी इसको बताने की चेष्टा करना भी निरर्थक है।
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