उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
|
7 पाठकों को प्रिय 337 पाठक हैं |
शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इसके बाद, बहुत दिनों तक न उसने मुझे खोजा और न मैंने ही उसे। दैवात् यदि कभी राह-घाट में मिल भी जाता तो मैं इस तरह मुँह मोड़कर चला जाता मानो उसे देखा ही न हो। किन्तु मेरा यह 'मानो' मुझे ही हमेशा तुस की आग की तरह जलाया करता, उसकी जरा-सी भी हानि न कर सकता। लड़कों के दल में उसका बड़ा सम्मान था। फुटबाल-क्रिकेट का वह दलपति था, जिमनास्टिक अखाड़े का मास्टर था। उसके कितने ही अनुचर थे, और कितने ही भक्त। मैं तो उसकी तुलना में कुछ भी न था। फिर-क्यों वह दो ही दिन के परिचय में मुझे 'मित्र' कहने लगा और फिर क्यों उसने त्याग दिया? परन्तु जब उसने त्याग दिया तब मैं भी जबर्दस्ती करके उससे सम्बन्ध जोड़ने नहीं गया।
मुझे खूब याद है कि मेरे संगी-साथी जब इन्द्र का उल्लेख करके उसके सम्बन्ध में तरह-तरह की अद्भुत अचरजभरी बातें कहना शुरू कर देते, तब मैं चुपचाप उन्हें सुनता रहता। छोटी-सी बात कहकर भी मैंने कभी यह जाहिर नहीं किया कि वह मुझे जानता है अथवा उसके सम्बन्ध में मैं कुछ जानता हूँ। न जाने कैसे मैं उस उम्र में ही यह जान गया था कि 'बड़े' और 'छोटे' की दोस्ती का परिणाम प्राय: ऐसा ही होता है। भविष्य जीवन में मैं भाग्यवश अनेक 'बड़े' मित्रों के संसर्ग में आऊँगा इसलिए, शायद, भगवान ने दया करके यह सहज-ज्ञान मुझे दे दिया था जिससे कि मैं कभी किसी भी कारण से अपनी अवस्था का अतिक्रमण करके अर्थात् अपनी योग्यता का खयाल किये बिना मित्रता का मूल्य आँकने न जाऊँ। नहीं तो देखते-देखते 'मित्र' प्रभु बन जाता है, और साध की 'मित्रता' का पाश दासत्व की बेड़ी बनकर 'छोटे' के पैरों को जकड़ लेता है। यह दिव्यज्ञान इतने सहज में और इस तरह सत्य रूप में मुझे प्राप्त हो गया था कि इसमें मैं हमेशा के लिए अपमान और लांछनाओं से छुटकारा पा गया हूँ।
तीन-चार महीने कट गये। दोनों ने ही दोनों को त्याग दिया - भले ही इसकी वेदना किसी पक्ष के लिए कितनी ही निदारुण क्यों न हो; किसी ने किसी की भी खोज-खबर नहीं ली।
|