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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


फिर उसी अन्धकारपूर्ण जंगल के रास्ते से होते हुए दोनों जने शाहजी की कुटी में जा पहुँचे। उस समय, शायद रात्रि अधिक बाकी नहीं थी।

किरासिन का एक दीपक जलाए जीजी बैठी हुई थीं। उनकी गोद में शाहजी का सिर रक्खा हुआ था और उनके पैरों के पास एक बड़ा लम्बा काला साँप पड़ा था।

जीजी ने कोमल स्वर में सारी घटना संक्षेप में कह सुनाई। आज दोपहर को किसी के घर से साँप पकड़ने का बुलावा आया था। वहाँ इस साँप को पकड़ने में जो इनाम मिला उसने उससे ताड़ी लेकर पी ली और चढ़े नशे में संध्या के कुछ पहले घर लौट आया। फिर जीजी के बार-बार मना करने पर भी वह उस साँप को खिलाने के लिए उद्यत हुआ और देर तक खिलाता भी रहा। परन्तु अन्त में खेल को समाप्त करने के पहले, जब वह उसे पूँछ पकड़कर हंडी में बन्द करने लगा तब नशे की झोंक में आकर ज्यों ही उसके मुख को अपने मुख के पास लाकर, चुम्बन करके, अपना प्यार प्रकट करने गया, त्यों ही उसने भी अपना प्यार व्यक्त करने को शाहजी के गले पर तीव्र चुम्बन अंकित कर दिया।

जीजी ने अपने मैले आँचल के छोर से अपनी आँखें पोंछते हुए मुझे लक्ष्य करके कहा, “श्रीकान्त, उसी समय उसे ज्ञात हुआ कि अब समय अधिक नहीं है। तब उन्होंने यह कहकर कि 'आ रे, अब हम दोनों इस दुनिया से एक साथ ही कूच करें' साँप के सिर को पैर के नीचे दबा लिया और दोनों हाथों से उसकी पूँछ खींचकर इतना लम्बा करके फेंक दिया। इसके बाद दोनों का ही 'खेल' समाप्त हो गया!” इतना कहकर उन्होंने, हाथ से अत्यन्त वेदना के साथ, शाहजी के मुख के ऊपर का कपड़ा दूर कर दिया और बहुत सावधानी से उसके नीले होठों को अपने हाथ से स्पर्श करके कहा, “जाने दो, अच्छा ही हुआ इन्द्रनाथ, भगवान को मैं तनिक भी दोष नहीं देती।”

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