उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
हम दोनों में से किसी से भी बोलते न बन पड़ा। उस कण्ठ-स्वर में जो मर्मान्तिक वेदना, जो प्रार्थना और जो घना अभिमान प्रकाशित हुआ, उसे जिसने सुना उसके लिए, भूल जाना इस जीवन में कभी सम्भव नहीं, किन्तु किसके लिए था यह अभिमान! और प्रार्थना भी किसके लिए?
कुछ देर स्थिर रहकर वे बोलीं, “तुम लोग अभी बच्चे हो, किन्तु, दोनों को छोड़कर मेरा तो कोई और है नहीं भाई; इसीलिए तुमसे भिक्षा माँगती हूँ कि इनका कुछ उपाय कर जाओ!” फिर अंगुली से कुटी के दक्षिण ओर के जंगल को बताकर कहा, “वहाँ पर जगह है। इन्द्रनाथ, बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी कि यदि मैं मर जाऊँ तो उसी जगह जा सोऊँ। सुबह होते ही उसी जगह ले जाकर इन्हें सुला देना। इस जीवन में इन्होंने अनेक कष्ट भोगे हैं- वहाँ कुछ शान्ति पाएँगे।”
इन्द्र ने पूछा, “शाहजी क्या बर में दफनाए जाँयगे!”
जीजी बोलीं, “मुसलमान जब हैं तब कब्र में ही दफनाना होगा भाई!”
इन्द्र ने पुन: पूछा, “जीजी, क्या तुम भी मुसलमान हो?”
जीजी बोली, “हाँ, मुसलमान नहीं तो और क्या हूँ?”
उत्तर सुनकर इन्द्र भी मानो कुछ संकुचित और कुण्ठित हो उठा। उसके चेहरे के भाव से अच्छी तरह देख पड़ता था कि इस जवाब की उसने आशा नहीं की थी। जीजी को वह दरअसल चाहता था। इसीलिए मन ही मन वह एक गुप्त आशा पोषण कर रहा था कि उसकी जीजी उसी के समाज की एक स्त्री है। परन्तु मुझे उनके कहने पर विश्वास नहीं हुआ। खुद उनके मुँह से स्वीकारोक्ति सुनकर भी मेरे मन में यह बात न बैठी कि वे हिन्दू-कन्या नहीं हैं।
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