उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
बाकी रात भी कट गयी। इन्द्र निर्दिष्ट स्थान में जाकर कब्र खोद आया और हम तीनों जनों ने ले जाकर शाहजी की मृत देह को समाहित कर दिया। गंगाजी के ठीक ऊपर, कंकरों का एक कगारा, टूटकर, मानो किसी की ठीक अन्तिम शय्या के लिए ही अपने आप यह जगह बन गयी थी। 20-25 हाथ नीचे ही जाह्नवी मैया की धारा थी - और सिर से ऊपर वन्य-लताओं का आच्छादन। किसी प्रिय वस्तु को सावधानी से लुका रखने के लिए मानो यह स्थान बनाया गया था। बड़े ही भाराक्रान्त हृदय से हम तीनों जनें पास ही बैठे - और एक जन हमारी गोद के ही पास मिट्टी के नीचे चिर-निद्रा में अभिभूत होकर सो गया। तब भी सूर्योदय नहीं हुआ था - नीचे से मन्द-स्रोता भागीरथी का कलकल शब्द कानों में आने लगा - सिर के ऊपर, आसपास, वन के पक्षी प्रभाती गाने लगे। कल जो था आज वह नहीं है। कल सुबह क्या यह सोचा था कि आज रात इस तरह बीतेगी? कौन जानता था कि एक मनुष्य का शेष मुहूर्त इतने निकट आ पहुँचा है?
हठात् जीजी उसकी कब्र पर लेट गयी और विदीर्ण कण्ठ से चिल्लाकर रो पड़ी, “माँ गंगा, मुझे भी अपने चरणों में स्थान दो, मेरे लिए अब और कहीं जगह नहीं है।” उनकी यह प्रार्थना, वह निवेदन, कितना मर्मान्तिक सत्य था यह उस दिन मैं उतनी तीव्रता से अनुभव नहीं कर सका था जितना कि उसके दो दिन बाद कर सका। इन्द्र ने एक बार मेरी ओर आँखें उठाकर देखा, इसके बाद उस आर्त्त-स्वर में कहा, “जीजी, तुम मेरे यहाँ चलो - मेरी माँ अब भी जीती हैं, वे तुम्हें फेंकेंगी नहीं, अपनी गोद में उठा लेंगी। वे प्रेम-मूर्ति हैं, एक बार चलकर तुम सिर्फ उनके सामने खड़ी भर हो जाना। चलो, तुम हिन्दू ही की लड़की हो जीजी, मुसलमानिन किसी तरह भी नहीं!”
जीजी कुछ बोली नहीं, कुछ देर उसी तरह मूर्च्छित-सी पड़ी रहीं और अन्त में उठ बैठीं। इसके बाद उठकर हम तीनों ने गंगा-स्नान किया। जीजी ने हाथ की चूड़ियाँ और सुहाग की कण्ठी तोड़कर गंगा में बहा दी। मिट्टी से मस्तक का सिन्दूर पोंछकर, सद्य-विधवा के वेष में सूर्योदय के साथ ही साथ वे कुटी में लौट आईं।
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