लोगों की राय

उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

337 पाठक हैं

शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


इन्द्र को उन्होंने पहिचान लिया था। रोकते हुए भी इन्द्र ने उनके पैरों की धूलि सिर पर लेकर प्रणाम किया और रोते-रोते कहा, “जीजी, इस जंगल में तुम्हें अकेली छोड़ जाने को मेरा किसी तरह साहस नहीं होता। मन में न जाने क्यों, ऐसा लगता है कि मैं तुम्हें और न देख पाऊँगा!”

जीजी ने उनका कुछ जवाब नहीं दिया, सहसा मुँह फेरकर आँखें पोंछती हुईं वे उसी वन-पथ से अपनी शोक से ढँकी हुई उस शून्य कुटी में लौट गयीं। जहाँ तक दिखाई देती रहीं वहाँ तक मैं उनकी ओर देखता रहा। किन्तु उन्होंने एक बार भी लौटकर नहीं देखा-उसी तरह, मस्तक नीचा किये, एक ही भाव से चलती हुई वे दृष्टि से ओझल हो गयीं और तब, उन्होंने लौटकर क्यों नहीं देखा, इसे मन ही मन हम दोनों ही जनों ने अनुभव किया।

तीन दिन बाद स्कूल की छुट्टी होते ही बाहर आकर देखा कि इन्द्रनाथ फाटक के बाहर खड़ा है। उसका मुँह अत्यन्त शुष्क हो रहा था, पैरों में जूते नहीं थे और वे घुटनों तक धूल में भरे हुए थे। उस अत्यन्त दीन चेहरे को देखकर मैं भयभीत हो गया। वह बड़े आदमी का लड़का था और साधारणतया बाहर से कुछ शौकीन भी था। ऐसी अवस्था में मैंने उसको कभी नहीं देखा था और मैं समझता हूँ कि और किसी ने भी न देखा होगा। इशारा करके मुझे मैदान की ओर ले जाकर उसने कहा, “जीजी नहीं हैं। कहीं चली गयीं। मेरे मुँह की ओर उसने आँख उठाकर भी नहीं देखा। बोला, “कल से कितनी जगह जाकर मैं खोज आया हूँ, परन्तु कहीं वे नहीं दिखाई दीं। तेरे लिए वे एक चिट्ठी लिखकर रख गयी हैं; यह ले।” इतना कहकर एक मुड़ा हुआ पीला कागज मेरे हाथ में थमाकर वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ दूसरी ओर चल दिया। जान पड़ा कि हृदय उसका इतना पीड़ित, इतना शोकातुर हो रहा था कि किसी के साथ आलोचना करना उसके लिए असाध्य था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book