उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
इन्द्र हठात् क्रुद्ध हो उठा, बोला, “सो तो मैं भी जानता हूँ। ताड़ी की दुकान का, गाँजे की दुकान का जरूर कुछ देना होगा; किन्तु इससे तुम्हें क्या? किसकी ताकत है कि तुमसे रुपया माँगे? चलो तुम मेरे साथ, देखूँ कौन रोकता है तुम्हें?”
इतने दु:ख में भी जीजी को कुछ हँसी आ गयी। बोलीं, “अरे पागल, मुझे रोकने वाला मेरा खुद का ही धर्म है। पति का ऋण मेरा खुद का ही ऋण है और उन लेने वालों को तुम किस तरह रोक सकोगे भाई? यह नहीं हो सकता। आज तुम लोग घर जाओ- मेरे पास जो कुछ थोड़ा-बहुत है, उसे बेच-बाच कर कर्ज चुकाने की कोशिश करूँगी। कल-परसों फिर किसी दिन आना।”
इतनी देर मैं चुपचाप ही था। इस बार बोला, “जीजी, मेरे पास घर में और भी चार-पाँच रुपये पड़े हैं - ले आऊँ क्या?” बात पूरी भी न होने पाई थी कि वे उठकर खड़ी हो गयी और छोटे बच्चे की तरह मुझे अपनी छाती से लगाकर, मेरे मस्तक पर अपने होंठ छुआकर, मेरे मुँह की ओर प्रेम से देखती हुई बोलीं, “नहीं भइया, और लाने को जरूरत नहीं है। उस दिन तुम पाँच रुपये रख गये थे, तुम्हारी वह दया मैं मरने तक याद रखूँगी, भइया! आशीर्वाद दिये जाती हूँ कि भगवान सदा तुम्हारे हृदय के भीतर बसें और इसी तरह दुखियों के लिए आँसू बहाते रहें।” बोलते-बोलते ही उनकी आँखों से झर-झर नीर झरने लगा।
करीब आठ-नौ बजे हम घर जाने को तैयार हुए। उस दिन वे साथ-साथ रास्ते तक पहुँचाने आयीं। जाते समय इन्द्र का एक-हाथ पकड़कर बोलीं, “इन्द्रनाथ, श्रीकान्त को तो आशीर्वाद दे दिया, किन्तु तुम्हें आशीर्वाद देने का साहस मुझ में नहीं है। तुम मनुष्य के आशीर्वाद के परे हो। इसलिए मैंने आज मन ही मन तुम्हें भगवान के श्रीचरणों में सौंप दिया है। वे तुम्हें अपना लें।”
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