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उपन्यास >> श्रीकान्त

श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


संध्या हो चुकी है। प्रवेश करते ही मैं जान गया कि राजकुमार के खास कमरे में बहुत देर से संगीत की बैठक जमी हुई है। राजकुमार ने बड़े आदर से मेरा स्वागत किया यहाँ तक कि आदर के अतिरेक से खड़े होने को तैयार होकर वे तकिये के सहारे लेट गये! मित्र दोस्त, विह्वल-कण्ठ से आइए, आइए, पधारिए, कहकर संवर्धन करने लगे। मैं सर्वथा अपरिचित था। किन्तु वह, उन लोगों की जो अवस्था थी उससे, अपरिचय के कारण रुकने वाली नहीं थी।

ये 'बाईजी' पटने से, बहुत-सा रुपया पाने की शर्त पर, दो सप्ताह के लिए आई थीं। इस काम में राजकुमार ने जिस विवेचना और विलक्षणता का परिचय दिया था उसकी तारीफ तो करनी ही होगी। बाईजी, खूब सुन्दर, सुकण्ठ और गाने में निपुण थीं।

मेरे प्रवेश करते ही गाना थम गया। इसके बाद समयोचित वार्तालाप और अदब-कायदे का कार्य समाप्त होने में भी कुछ समय चला गया। राजकुमार ने अनुग्रह करके मुझसे गाने की फरमाइश करने का अनुरोध किया। राजाज्ञा पाकर पहले तो मैं अत्यन्त कुण्ठित हो उठा, किन्तु थोड़ी ही देर में मालूम हो गया कि संगीत की उस मजलिस में, सिर्फ मैं ही कुछ धुँधला-सा देख सकता हूँ और सब ही छछूँदर के माफिक अन्धे हैं।

बाईजी खिल उठीं। पैसे के लोभ से बहुत-से काम किये जा सकते हैं, सो मैं जानता था; किन्तु, इन निराट मूर्खों के दरबार में वीणा बजाना वास्तव में ही इतनी देर तक, उसे बड़ा कठिन मालूम हो रहा था। इस दफे एक समझदार व्यक्ति पाकर मानो वे बच गयीं। इसके बाद, रात को देर तक, मानो केवल मेरे लिए ही, उन्होंने अपनी समस्त विद्या, समस्त सौन्दर्य और कण्ठ के समस्त माधुर्य में हमारे चारों तरफ की उस समस्त कदर्न्य मदोन्मत्ता को डुबा दिया और अन्त में वे स्तब्ध हो गयीं।

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