उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
बाईजी पटने की रहने वाली थीं। नाम था 'प्यारी'। उस रात्रि को उन्होंने जिस तरह अपनी सारी शक्ति लगाकर गाना सुनाया उस तरह शायद पहले कभी नहीं सुनाया होगा। मैं तो मुग्ध हो गया था। गाना बन्द होते ही मेरे मुँह से यही निकला- “वाह, खूब!”
प्यारी ने मुँह नीचा करके हँस दिया। इसके बाद दोनों हाथों को मस्तक पर लगाकर प्रणाम किया - सलाम नहीं। मजलिस उस रात के लिए खत्म हो गयी।
उस समय दर्शकों में कोई सो रहा था, कोई तन्द्रा में था और अधिकांश बेहोश थे। अपने तम्बू में जाने के लिए बाईजी जब सदलबल बाहर निकल रही थीं, तब मैं आनन्द के अतिरेक से हिन्दी में बोल उठा-”बाईजी मेरा, बड़ा सौभाग्य है कि तुम्हारा गाना रोज दो सप्ताह तक सुनने को मिलेगा।” बाईजी पहले तो ठिठककर खड़ी हो रहीं, पर दूसरे ही क्षण कुछ नजदीक आकर अत्यन्त कोमल कण्ठ से परिष्कृत बंगला में बोलीं, “रुपये लिये हैं, सो मुझे तो गाना ही पड़ेगा; परन्तु क्या आप भी इन पन्द्रह सोलह दिनों तक इनकी मुसाहबी करते रहेंगे? जाइए, कल ही आप अपने घर चले जाइए।”
यह बात सुनकर हतबुद्धि-सा होकर मैं मानो काठ हो गया और क्या जवाब दूँ, यह ठीक कर सकने के पहले ही देखा कि बाईजी तम्बू के बाहर हो गयी हैं।
सुबह शोर गुल मचाकर कुमार साहब शिकार के लिए बाहर निकले। मद्य-मांस की तैयारी ही सबसे अधिक थी। साथ में दस-बारह शिकारी नौकर थे। पन्द्रह बन्दूकें थीं- जिसमें छ: राइफलें थीं। स्थान था एक अधसूखी नदी के दोनों किनारे। इस पार गाँव था और उस पार रेत का टीला। इस पार कोस भर तक बड़े-बड़े सेमर के वृक्ष थे और उस पार रेती के ऊपर जगह-जगह काँस और कुशों के झुरमुट। यहाँ ही उन पन्द्रह बन्दूकों को लेकर शिकार किया जायेगा। सेमर के वृक्षों पर मुझे कबूतर की जाति के पक्षी दीख पड़े और अधसूखी नदी के मोड़ के पास ऐसा जान पड़ा कि दो पक्षी, चकवा-चकई, तैर रहे हैं।
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