उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
कौन-किस ओर जाय, इस बात पर अत्यन्त उत्साह से परामर्श करते-करते सब ही ने दो-दो प्याले चढ़ाकर देह और मन को वीरों की तरह कर लिया। मैंने बन्दूक नीचे रख दी। एक तो बाईजी के व्यंग्य की चोट खाकर रात से ही मन विकल हो रहा था, उस पर यह शिकार का क्षेत्र देखकर तो सारा शरीर जल उठा।
कुमार ने पूछा, “क्यों जी कान्त, तुम तो बड़े गुमसुम हो रहे हो? अरे यह क्या! बन्दूक ही रख दी!”
“मैं पक्षियों को नहीं मारता।”
“यह क्या जी? क्यों, क्यों?”
“मुँह पर रेख निकलने के बाद से मैंने छर्रेवाली बन्दूक नहीं चलाई - मैं उसे चलाना भी भूल गया हूँ।”
कुमार साहब हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये। किन्तु उस हँसी का द्रव्य-गुण से कितना सम्बन्ध था, यह बात अवश्य दूसरी है।
सूरज के आँख-मुँह लाल हो उठे। वे इस दल के प्रधान शिकारी और राजपुत्र के प्रिय पार्श्वचर थे। उनके अचूक निशाने की ख्याति मैंने आते ही सुन ली थी। वे रुष्ट होकर बोले, “चिड़ियों का शिकार क्या कुछ शर्म की बात है?”
मेरा मिजाज भी ठिकाने पर नहीं था, इसलिए जवाब दिया, “सबके लिए नहीं, परन्तु मेरे लिए तो है! खैर! कुमार साहब, मेरी तबियत ठीक नहीं है।” कहकर मैं तम्बू में लौट आया। इस पर कौन हँसा, किसने आँखें मिचकाईं। किसने मुँह बनाया, सो मैंने नजर उठाकर भी नहीं देखा।
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