उपन्यास >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
तम्बू में लौटकर मैं फर्श पर चित्त लेटा ही था और एक प्याला चाय तैयार करने का आदेश देकर एक सिगरेट पी ही रहा था कि बैरे ने आकर अदब के साथ कहा, “बाईजी आपसे मिलना चाहती हैं।” ठीक इसी बात की मैं आशा कर रहा था और आशंका भी। पूछा, “क्यों मिलना चाहती हैं?”
“सो तो मैं नहीं जानता।”
“तुम कौन हो?”
“मैं बाईजी का खानसामा हूँ।”
“बंगाली हो?”
“जी हाँ, जाति का नाई हूँ। नाम मेरा रतन है।”
“बाईजी हिन्दू हैं?”
रतन हँसकर बोला, “न होतीं तो मैं कैसे रहता बाबू?”
मुझे साथ ले जाकर और तम्बू का दरवाजा दिखाकर रतन चला गया। पर्दा उठाकर भीतर देखा कि बाईजी अकेली बैठी हुई प्रतीक्षा कर रही हैं। कल रात को पेशवाज और ओढ़नी के कारण मैं ठीक तौर से पहिचान न सका था, परन्तु आज देखते ही पहिचान लिया कि हो कोई; पर बाईजी हैं बंगाली की ही लड़की। बाईजी गरद की साड़ी पहने हुए मूल्यवान कार्पेट के ऊपर बैठी थीं। भीगे हुए बिखरे बाल पीठ के ऊपर फैल रहे थे। हाथों के पास पान-दान रक्खा था और सामने हुक्का। मुझे देखकर उठ खड़ी हुयीं और हँसकर सामने का आसन दिखाते हुए बोलीं, “बैठिए। आपके सामने अब और तमाखू नहीं पीऊँगी - अरे रतन, हुक्का उठा ले जा। यह क्या खड़े क्यों हैं! बैठ जाइए न!”
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