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वीर बालक

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9731

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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ


देहली के सिंहासन पर औरंगजेब बैठ चुका था। उसके अन्याय का दौर सारे देश को आतंकित कर रहा था। छत्रसाल की अवस्था उस समय लगभग 13-14 वर्ष की थी। विंध्यवासिनी देवी के मन्दिर में मेला था। चारों ओर चहल-पहल थी। दूर-दूर से लोग भगवती के दर्शन करने चले आ रहे थे। महाराज सुजानराव बुन्देले सरदारों के साथ वार्तालाप करने में लगे थे। युवराज छत्रसाल ने जूते उतारे, हाथ-पैर धोये और एक डलिया लेकर देवी की पूजा करने के लिये पुष्प चुनने वे वाटिका में पहुँचे। उनके साथ उसी अवस्था के दूसरे राजपूत-बालक भी थे। पुष्प चुनते हुए वे कुछ दूर निकल गये। इतने में वहाँ कुछ मुसलमान सैनिक घोड़ों पर चढ़े आये। पास आकर वे घोड़ों से उतर पड़े और पूछने लगे- 'विंध्यवासिनी का मन्दिर किधर है?’

छत्रसाल ने पूछा- 'क्यों, तुम्हें भी क्या देवी की पूजा करनी है?'

मुसलमान सरदार ने कहा- 'छि:, हम तो मन्दिर को तोड़ने आये हैं।'

छत्रसाल ने फूलों की डलिया दूसरे बालक को पकड़ायी और गर्ज उठे- 'मुँह सम्हालकर बोल! फिर ऐसी बात कही तो जीभ खींच लूँगा।'

सरदार हँसा और बोला - 'तू भला क्या कर सकता है। तेरी देवी भी..... ।' लेकिन बेचारे का वाक्य पूरा नहीं हुआ। छत्रसाल की तलवार उसकी छाती में होकर पीछे तक निकल गयी थी। एक युद्ध छिड़ गया उस पुष्पवाटिका में। जिन बालकों के पास तलवारें नहीं थीं, वे तलवारें लेने दौड़ गये।

मन्दिर में इस युद्ध का समाचार पहुँचा। राजपूतों ने कवच पहने और तलवार सम्हाली; किंतु उन्होंने देखा कि युवराज छत्रसाल एक हाथ में रक्त से भीगी तलवार तथा दूसरे में फूलों की डलिया लिये हँसते हुए चले आ रहे हैं। उनके वस्त्र रक्त से लाल हो रहे हैं। अकेले युवराज ने शत्रु सैनिकों को भूमि पर सुला दिया था। महाराज सुजानराव ने छत्रसाल को हृदय से लगा लिया। भगवती विंध्यवासिनी अपने सच्चे पुजारी के आज के शौर्य-पुष्प पाकर प्रसन्न हो गयीं।

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