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वीर बालिकाएँ

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :70
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9732

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साहसी बालिकाओँ की प्रेरणात्मक कथाएँ

भगवती ने अपनी भाभी से कहा- 'तुम रोओ मत! मैं भैया को अभी घर भेज दूँगी। इतना कहकर वह घाट पर आ गयी। मिर्जा अपने आदमियों को उसे पकड़ लाने के लिये गाँव में जाने को कह रहा था, इतने में ही भगवती वहाँ पहुँच गयी। उसने मिर्जा से कहा- 'आपने इतना बखेड़ा क्यों किया। मैं आपकी बेगम बनूँ यह तो मेरा सौभाग्य ही है। मेरे भाई को छोड़ दीजिये।’

मिर्जा को आशा नहीं थी कि भगवती इतनी सरलता से मिलेगी। उसने होरिलसिंह को छोड़ दिया। वे कुछ नहीं समझ सके कि बात क्या है। भगवती ने कहा- 'मुझे नाव पर डर लगता है। मैं पालकी से चलूँगी।’

मिर्जा ने एक बहुत सुन्दर पालकी मँगवायी। भगवती पालकी में बैठकर चली। जब पालकी एक तालाब के पास पहुँच गई तो भगवती ने कहा- 'मुझे प्यास लगी है। यह तालाब मेरे पिता का बनवाया है! अब मैं अन्तिम बार इस तालाब का पानी अपने हाथों से पीना चाहती हूँ।'

पालकी रुक गयी। भगवती अकेली तालाब पर गयी। तालाब पर एक छोटा-सा देवी का मन्दिर था। भगवती ने देवी को प्रणाम किया और वह तालाब में कूद पड़ी। बहुत देर होने पर मिर्जा वहाँ आया, लेकिन अब वहाँ धरा क्या था। मिर्जा ने तालाब में जाल डलवाया, लेकिन भगवती का मृत शरीर भी उसके जाल में नहीं आया।

होरिलसिंह ने जब यह बात सुनी तो वे भी वहाँ दौड़े आये। उन्होंने जैसे ही उस तालाब में जाल डलवाया, वैसे ही भगवती का शरीर उनके जाल में आ गया। उस तालाब के किनारे ही अपनी उस पवित्र बहिन की देह उन्होंने चिता पर रखी, जिसने प्राण देकर अपने धर्म और कुल की लाज बचा ली थी।

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