नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 1 प्रेमचन्द की कहानियाँ 1प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पहला भाग
देवीजी ने बैठे-बैठे कहा- पहले कपड़े-वपड़े तो उतारो, मुँह-हाथ धोओ, कुछ खाओ, फिर जो कहना हो, कह लेना।
ज्ञानबाबू को धैर्य कहाँ? पेट में बात की गन्ध तक न पचती थी। आग्रह से बुलाया-तुमसे उठा नहीं जाता? मेरी जान आफत में है।
देवीजी ने बैठे-बैठे कहा- तो कहते क्यों नहीं, क्या कहना है?
'यहाँ आओ।'
'क्या यहाँ और कोई बैठा हुआ है?'
मै यहाँ से चली। बहन ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं जोर करने पर भी न छुड़ा सकी। ज्ञानबाबू मेरे सामने न कहना चाहते थे, पर इतना सब्र भी न था कि जरा देर रुक जाते बोले- प्रिंसिपल से मेरी लड़ाई हो गयी।
देवीजी ने बनाबटी गम्भीरता से कहा- सच! तुमने उसे खूब पीटा न?
'तुम्हें दिल्लगी सूझी है। यहाँ नौकरी जा रही है।'
'जब यह डर था, तो लड़े क्यों?'
'मैं थोड़ा ही लड़ा। उसने मुझे बुलाकर डाँटा'
'बेकसूर?'
'अब तुमसे क्या कहूँ।'
'किर वही पर्दा। मैं कह चुकी, यह मेरी बहन है। मैं इससे कोई पर्दा नहीं रखना चाहती।'
'और, जो इन्हीं के बारे में कोई बात हो, तो?'
देवीजी ने जैसे पहेली बूझकर कहा- अच्छा! समझ गयी। कुछ खुफियों का झगड़ा होगा। पुलिस ने तुम्हारे प्रिंसिपल से शिकायत की होगी।
ज्ञान बाबू ने इतनी आसानी से अपनी पहेली का बूझा जाना स्वीकार न किया।
बोले- पुलिस ने प्रिंसिपल से नहीं हाकिम-जिला से कहा- उसने प्रिंसिपल को बुलाकर मुझसे जवाब तलब करने का हुक्म दिया।
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