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प्रेमचन्द की कहानियाँ 1

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9762

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पहला भाग


देवी ने अन्दाज से कहा- समझ गयी। प्रिंसिपल ने तुमसे कहा होगा कि उस स्त्री को घर से निकाल दो।

'हाँ, यही समझ लो।'

'तो तुमने क्या जवाब दिया?'

'अभी कोई जवाब नहीं दिया। वहाँ खड़े-खड़े क्या कहना।'

देवीजी ने उन्हें आड़े हाथों लिया- जिस प्रश्न का एक ही जवाब हो, उसमें सोच-विचार कैसा?

ज्ञान बाबू सिटपिटाकर बोले- लेकिन कुछ सोचना तो जरूरी था।

देवीजी की त्योरियाँ बदल गयीं। आज मैंने पहली बार उनका यह रूप देखा।

बोलीं- तुम उस प्रिंसिपल से जाकर कह दो, मैं उसे किसी तरह नहीं छोड़ सकता, और न माने, तो इस्तीफा दे दो, अभी जाओ। लौटकर हाथ-मुँह धोना।

मैंने रोकर कहा- बहन, मेरे लिए...

देवीजी ने डाँट बतायी- तू चुप रह , नहीं कान पकड़ लूँगी। क्यों बीच में कूदती है। रहेंगे तो साथ रहेंगे, मरेंगे तो साथ मरेंगे। इस मरदुएु को मैं क्या कहूँ। आधी उम्र बीत गयी और बात करना न आया। (पति से) खड़े सोच क्या रहे हो? तुम्हें डर लगता

है, तो मैं जाकर कह आऊँ?

ज्ञान बाबू ने खिसियाकर कहा- तो कल कह दूँगा, इस वक़्त कहाँ होगा, कौन जाने!

रात-भर मुझे नींद नहीं आयी। बाप और ससुर जिसका मुँह नहीं देखना चाहते, उसका यह आदर! राह की भिखारिन का यह सम्मान! देवी, तू सचमुच देवी है।

दूसरे दिन ज्ञान बाबू चले, तो देवी ने किर कहा- फैसला करके घर आना। यह न हो कि सोचकर जवाब देने की जरूरत पड़े।

ज्ञान बाबू के चले जाने के बाद मैंने कहा- तुम मेरे साथ बड़ा अन्याय कर रही हो बहनजी! मै यह कभी नहीं देख सकती कि मेरे कारण तुम्हें यह विपत्ति झेलनी पडे।

देवी ने हास्य-भाव से कहा- कह चुकी; या कुछ और भी कहना है?

'कह चुकी; मगर अभी बहुत कुछ कहूँगी।'

'अच्छा, बता तेरे प्रियतम क्यों जेल गये? इसलिए तो कि स्वयंसेवकों का सत्कार किया था। स्वयंसेवक कौन हैं? वे हमारी सेना के वीर हैं, जो हमारी लड़ाईयाँ लड़ रहे हैं। स्वयंसेवकों के भी तो बाल-बच्चे होंगे, माँ-बाप होंगे, वह भी तो कोई कारोबार करते होंगे; पर देश की लड़ाई के लिए, उन्होंने सब कुछ त्याग दिया है।

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