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प्रेमचन्द की कहानियाँ 1

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9762

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पहला भाग


ऐसे वीरों का सत्कार करने के लिए, जो आदमी जेल में डाल दिया जाय, उसकी स्त्री के दर्शनों से भी आत्मा पवित्र होती है। मैं तुझ पर एहसान नहीं कर रही हूँ, तू मुझ पर एहसान कर रही है।'

मैं इस दया-सागर में डुबकियाँ खाने लगी। बोलती क्या?

शाम को जब ज्ञान बाबू लौटे, तो उनके मुख पर विजय का आनन्द था।

देवी ने पूछा- हार कि जीत?

ज्ञान बाबू ने अकड़कर कहा- जीत! मैंने इस्तीफा दे दिया, तो चक्कर में आ गया।

उसी वक़्त जिला-हाकिम के पास गया। वहाँ न जाने मोटर पर बैठकर दोनों में क्या बातें हुईं। लौटकर मुझसे बोला- आप पोलिटिकल जलसों में तो नहीं जाते?

मैंने कहा- कभी भूलकर भी नहीं।

'कांग्रेस के मेम्बर तो नहीं हैं?'

मैंने कहा- मेम्बर क्या, मेम्बर का दोस्त भी नहीं।

'कांग्रेस फंड में चन्दा तो नहीं देते?'

मैंने कहा- कानी कौड़ी भी कभी नहीं देता।''

'तो मैं आपसे कुछ नहीं कहना है। मैं आपका इस्तीफा वापस करता हूँ।'

देवीजी ने मुझे गले से लगा लिया।

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7. अपनी करनी

आह, अभागा मैं! मेरे कर्मों के फल ने आज यह दिन दिखाये कि अपमान भी मेरे ऊपर हंसता है। और यह सब मैंने अपने हाथों किया। शैतान के सिर इलजाम क्यों दूं, किस्मत को खरी-खोटी क्यों सुनाऊँ, होनी को क्यों रोऊं? जो कुछ किया मैंने जानते और बूझते हुए किया। अभी एक साल गुजरा जब मैं भाग्यशाली था, प्रतिष्ठित था और समृद्धि मेरी चेरी थी। दुनिया की नेमतें मेरे सामने हाथ बांधे खड़ी थीं लेकिन आज बदनामी और कंगाली और शंर्मिदगी मेरी दुर्दशा पर आंसू बहाती है। मैं ऊंचे खानदान का, बहुत पढ़ा-लिखा आदमी था, फारसी का मुल्ला, संस्कृत का पण्डित, अंगेजी का ग्रेजुएट। अपने मुंह मियां मिट्ठू क्यों बनूं लेकिन रूप भी मुझको मिला था, इतना कि दूसरे मुझसे ईर्ष्या कर सकते थे। ग़रज एक इंसान को खुशी के साथ जिंदगी बसर करने के लिए जितनी अच्छी चीजों की जरुरत हो सकती है वह सब मुझे हासिल थीं। सेहत का यह हाल कि मुझे कभी सरदर्द की भी शिकायत नहीं हुई। फ़िटन की सैर, दरिया की दिलफ़रेबियां, पहाड़ के सुंदर दृश्य – उन खुशियों का जिक्र ही तकलीफ़देह है। क्या मजे की जिंदगी थी!

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