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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


मास्टरों ने बढ़ावा दिया- ''शेर है, शेर। इसका नाम जवाँमर्दी है।'' मगर जब कनकइयों में देखा कि हेडमास्टर साहब आ रहे हैं, तो मैदान साफ़ हो गया। तीन साल गोविंदराम ने यूँ ही काटे, मगर इन्हीं दिनों में उसे सबसे बड़ा जो अनुभव हुआ, वह यह था कि दुविधा में न माया मिलती है न राम। वह एकाग्रता, जोश, जवाँमर्दी, जो कामयाबी का राज-मंत्र है, किसी-न-किसी वजह से मुझमें वक्त जरूरत मौजूद नहीं। आए दिन ऐसी फ़िक्रें पैदा होती रहती थीं, जो मन की शांति की विरोधी हैं। उसकी आँखों के सामने ऐसी कितनी ही जिंदा मिसालें मौजूद थीं, जिन्होंने अध्यापन कार्य को वकालत का जीना बनाया था। यह कोई अनहोनी बात न थी। जोश में आकर वह दो-चार दिन ग़ैर-मामूली मेहनत से काम करता मगर फ़िर जोश कमजोर हो जाता। हौसला बुलंद मजबूत इरादे के बगैर बुढ़ापे का ही इश्क है। जब किताब खोलकर बैठता तो उसका दिमाग अध्ययन के मुक़ाबले में वकालत की बरकतों के ख्याल से ज्यादा खुश होता। यह मकान ध्वस्त कर दूँगा, इस जगह एक आलीशान मकान वनाऊँगा। उसका नक्शा उसकी निगाहों में खिंचा हुआ था। कई बार वह सचमुच पेंसिल उठाकर काग़ज़ लेकर विचारणीय मकान का नक्शा बनाने लगता। ऐसा मकान हो कि हर एक मौसम में आराम मिले, मेहमान आएँ तो उन्हें आराम के साथ ठहराया जा सके। इस तरह ख्याली क़िले बनाने मैं उसका वक्त खत्म हो जाता है और पाठशाला का वक्त आ पहुँचता।

यह तीन साल तपस्या के दिन थे। ललिता को घर का सब काम-काज अपने ही हाथों करना पड़ता, पर चूड़ियाँ बहुत टूटतीं और उसकी चूड़ियों का हफ्तावार खर्च भी तनख्वाह से कुछ ज्यादा ही हो जाता था। गोविंदराम मुँह अँधेरे उठता और पानी की कलसी खींच लाता। रोटी खाते-खाते और मोटे कपड़े पहनते, मगर मोटेपन का जिस्म पर उलटा असर होता था। कभी-कभी खासकर त्योहारों के दिन ललिता झुँझला उठती और अपना गुस्सा अपने पर उतारती, क्योंकि इससे ज्यादा कमजोर उसे और कोई चीज़ नज़र न आती थी। यूँ ही ललिता काम करती, गाढ़ा पहनती और जरा भी मन न मैला होता, मगर अपना अपमान उससे जरा भी बरदाश्त न हो सकती था। एक बार उसने अपनी पड़ोसिन से कुछ दुपट्टे कर्ज लिए, तनख्वाह का वायदा था, मगर गोविंदराम ने जिद्द की कि मुझे कानून की चंद किताबें मंगानी जरूरी हैं। वाद-विवाद शुरू हुआ और पूर्ववत कानून ने हक पर फ़तह पाई। ललिता का वायदा झूठा पड़ गया फिर. क्या था? लड़ाई शुरू हो गई, मगर खुले मैदान में नहीं। ललिता ने काहिली को ज्यादा कारगर समझा, जो आधुनिक युग का बेहतरीन लड़ाई का आविष्कार है।

तीन दिन घर में आग न जली और पड़ोसियों ने यह फ़ैसला किया कि आजकल बादामों पर बसर हो रही है। ऐसे भी लोगों के नसीब में कंगाली अपने असली रूप में उबर कर आया, मगर खुशहाली का भेस बदलकर। वह बडा जालिम और बेरहम होता है।

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2. दिल की रानी

जिन वीर तुर्कों के प्रखर प्रताप से ईसाई दुनिया काँप रही थी, उन्हीं का रक्तन आज कुस्तुनतुनिया की गलियों में बह रहा है। वही कुस्तुनतुनिया जो सौ साल पहले तुर्कों के आंतक से राहत हो रहा था, आज उनके गर्म रक्त से अपना कलेजा ठण्डा कर रहा है। और तुर्की सेनापति एक लाख सिपाहियों के साथ तैमूरी तेज के सामने अपनी किस्मत का फैसला सुनने के लिए खडा है।

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