कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
दुर्गादास चुपचाप सरदार जुल्फिकार खां की बातें सुन रहा था और सोच रहा था कि क्या उत्तर दिया जाय? अगर हां, करता हूं, तो अधर्म होता है। अभयदान देकर शाहजादे को फिर क्योंकर मौत के मुंह में डाल दूं। अगर न करता हूं तो न जाने सरदारों के मन में क्या हो। दुर्गादास इसी सोच-विचार में पड़ा था। शाहजादा बड़ी देर से दुर्गादास की तरफ देख रहा था। क्या उत्तर देते हैं? जब देखा कि दुर्गादास बोलते ही नहीं, मौनव्रत ही धारण कर लिया है, तो शाहजादे को चिन्ता ने घेर दबाया। उदास मन विचारने लगा कि कदाचित वीर दुर्गादास अपने प्राणों के लालच से मुझे न त्यागा; परन्तु अब तो अपने देश, धर्म और जाति का प्रश्न है। देश की भलाई के निमित्त मुझे अवश्य त्याग देगा; क्योंकि अपनी जाति वालों के आगे मुझ मुगल के प्राणों की उसे क्या परवाह होगी? और उचित भी ऐसा ही है। जहां एक के बलिदान से अनेकानेकों की रक्षा होती हो, इसमें विलम्ब न करना चाहिए। तब दुर्गादास जुल्फिकार खां की बातों का उत्तर क्यों नहीं देता कदाचि असमंजस में पड़ा हो कि जिसको अभयदान दे चुका है, उसे किस प्रकार त्याग दे? मेरी तो मृत्यु आ ही गई, तब अपने शुभचिन्तक को अधिक कष्ट क्यों पहुंचाऊं?
यह विचार कर शाहजादा उठ खड़ा हुआ और कहने लगा- वीर दुर्गादास! मैं आपकी नहीं, बल्कि अपनी इच्छा से सरदार जुल्फिकार खां के साथ जा रहा हूं। इसमें आपका कुछ दोष नहीं; क्योंकि जहां तक हो सका, आपने मेरी रक्षा की। मनुष्य अपनी शक्ति के बाहर क्या कर सकता है? कोई किसी का भाग्य नहीं पलट सकता।
वीर दुर्गादास ने शाहजादे का हाथ पकड़कर अपने पास बिठा लिया और बोला- शाहजादे! मैं चालीस हजार क्या, अगर बादशाह अपना राज्य भी देकर तुम्हें लेना चाहे तब भी तुम्हें अब मृत्यु के मुख में नहीं डाल सकता। मैं अपने कुल और जाति को कलंकित नहीं करना चाहता। राजपूतों के मुख में एक ही जिह्ना होती है। शाहजादा, कदाचित तुमने यह सोचा हो कि मेरे एक के लिए दुर्गादास अपने देश भर को विपत्ति में क्यों डालेगा? तो यह तुम्हारी भूल है। देखो, केवल महासिंह के लिए हमारे मारवाड़- वासियों ने कितना कष्ट भोगा; परन्तु उसका फल कैसा मिला? कहना व्यर्थ है, हाथकंगन को आरसी क्या। देखो, मारवाड़ स्वतंत्र हुआ। बादशाह ने सलाम के साथ-साथ चालीस हजार की भेंट भेजी है। अब यदि तुम्हारे लिए कष्ट उठाना पड़ेगा तो उससे भी अच्छे फल की आशा है। अंधेरे के बाद ही उजाला होता है। दु:ख भोगने के पश्चात् ही सुख का आनन्द मिलता है। मिट्टी में मिल जाने के पश्चात् ही बीज हरा-भरा वृक्ष बनता है।
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