कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
मुगलों के चले जाने के बाद, दुर्गादास वृक्ष से उतर कर मां जी के पास आया। मां जी ने मुहम्मद खां के बर्ताव की बड़ी सराहना की और दुर्गादास को सूर्योदय से पहले ही घर से निकल जाने को कहा। दुर्गादास राजी हो गया परन्तु जसकरण और तेजकरण को माता की रक्षा के लिए छोड़ जाना चाहा। मां जी ने कहा- ‘ना बेटा! मेरे काम के लिए नाथू बहुत है। तू जसकरण और तेजकरण को अपने साथ लेता जा। न जाने कब कौन काम पड़े! एक से दो अच्छे हैं। दुर्गादास सवेरा होते-होते मां जी को प्रणाम कर अपने भाई और बेटे को साथ ले घर से निकला। चलते समय नाथू को बुलाकर कहा- ‘देख माजी के कुशल-समाचार हमको प्रतिदिन पहुंचाया करना। और मुगलों से सदा सावधान रहना। महासिंह यदि जीवित हो, तो आज ही जैसे बने वैसे माड़ों पहुंचा देना और यदि मर गया हो, तो दाह-क्रिया कर देना और सुन उस लोहे की सन्दूकची को अपने प्राणों के समान समझना; परन्तु खोलकर यह न देखना कि उसमें क्या है? इस प्रकार नाथू को समझा-बुझाकर सूर्योदय के पहले ही अरावली की पहाड़ियों में पहुंच गया। माजी द्वार पर बड़ी देर तक खड़ी रहीं, जब दोनों बेटे और पोता आंख से ओझल हो गये तो घर लौट आयीं और ईश्वर से प्रार्थना करने लगीं भगवान्! हमारे बेटों को कुशल से रखना।
नाथू जो अभी बाहर ही था।, दौड़ता हुआ आया, बोला मां जी-मां जी, सामने से कुछ घुड़सवार चले आ रहे हैं। नाथू और कुछ न कह सका था। कि डेढ़-दो सौ मुसलमान सिपाही घर में घुस आये और मां जी को पकड़ लिया। नाथू घबरा उठा, अपने लिए नहीं, बूढ़ी मां जी के लिए। वह यह नहीं देख सकता था। कि एक क्षत्राणी मुगल सिपाहियों के बीच उघाड़ी खड़ी हो; परन्तु क्या करे? चार सिपाहियों ने पहले नाथू को ही पकड़ा।
सरदार ने पूछा- डोकरी बता, तेरा खूनी लड़का दुर्गादास कहां है?
मां जी ने कहा- ‘मैं नहीं जानती, घर पड़ा है। जहां हो, खोज लो।
सरदार ने नर्मी से फिर कहा- ‘मां जी, सच-सच बता दो, तो मैं दुर्गादास का खून माफ करा दूंगा और मकदूर भर उसकी मदद भी करूंगा। तुम्हें भी बादशाह से बहुत-सा धन दिला दूंगा; क्योंकि दुर्गादास अपराधी नहीं। अपराधी तो वह राजपूत है, जिसके लिए जोरावर खां मारा गया। हमें दुर्गादास से और कुछ न चाहिए। हमें उस राजपूत का पता बता दो, वह कौन था। और कहां है। यदि बादशाह को पता न लगा, तो उसके बदले तुम सब मारे जाओगे।
मां जी बोलीं अच्छा हो, मैं बेटे की रक्षा के लिए मारी जाऊं। मैं बूढ़ी हूं, अब दिन भी मरने के समीप ही हैं; परन्तु बेटों की प्राण-रक्षा के लिए मैं विश्वासघात नहीं कर सकती। जिसे आश्रय दिया है, उसे स्वार्थवश होकर निकाल नहीं सकते।
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