कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
यह सुनकर शमशेर खां जल उठा और तलवार खींचकर मां जी की ओर दौड़ा। नाथू जिसे सिपाही पकड़े पास ही खड़े थे, अपनी पूरी शक्ति लगाकर सिपाहियों के बीच से निकला और शमशेर खां के वार को रोका, परन्तु घायल होकर गिर पड़ा। दूसरे वार ने वीर माता का काम तमाम कर दिया। राजपूतानी ने कुल-मर्यादा की वेदी पर अपने प्राणों की आहुति दे दी। सरदार को अब भी सन्तोष न हुआ। घर की सम्पत्ति भी लुटवा ली और तब सिपाहियों को लौटने की आज्ञा दी। एक सिपाही वहीं खड़ा रहा; शमशेर खां ने पूछा क्यों रे खुदाबख्श! तू क्यों खड़ा है? खुदाबख्श ने कहा- ‘मैं तेरे जैसे जालिम का कहना नहीं मानता, तू मुसलमान नहीं। अपने धर्म का जानने वाला मुसलमान कभी ऐसा अत्याचार नहीं कर सकता। कोई भी वीर पुरुष अबला पर हाथ नहीं उठाता। तूने उस बुढ़िया को क्यों मारा? इसने तेरा क्या बिगाड़ा था? तूने उससे कहीं घोर अपराधा किया, जो दुर्गादास पर लगाया जा रहा है। बता, दो राजपूतों में से एक घायल हुआ था। और दूसरा मारा गया था, उसके मारने वाले को किसने शूली दी? शमशेर खां बिगड़कर खुदाबख्श की ओर लपका। खुदाबख्श पहले ही से सावधान था, शमशेर खां को पटक कर छाती पर चढ़ बैठा। उसकी फरियाद सुनने वाला भी वहां कोई न था। सिपाही पहले ही चले गये थे। खुदाबख्श ने एक हाथ से सरदार का गला दबाया और दूसरे हाथ से करौली निकाली। शमशेर खां गिड़गिड़ाकर प्राणों की भिक्षा मांगने लगा। खुदाबख्श ने करौली फिर कमर में रख ली और शमशेर खां को छोड़कर बोला यह न समझना, मैंने तुझ पर दया की है। मैंने सोचा, वीर दुर्गादास अपनी बूढ़ी माता का बदला किससे लेगा? अपने क्रोध की भभकती हुई आग किसके रक्त से बुझायेगा? बस, इसलिए मैंने अपने हाथ तुम जैसे पापी के रक्त में नहीं रंगे। यह कहकर खुदाबख्श पीछे फिरा, और शमशेर खां कंटालिया की ओर भागा।
खुदाबख्श ने जाकर नाथू और मां जी की लाश देखी कि शायद अब भी कुछ जान बाकी हो। तब तक नाथू चैतन्य हो चुका था, यद्यपि घाव गहरा लगा था।
खुदाबख्श ने नाथू को जीता देख ईश्वर को धन्यवाद दिया और घाव धोकर पट्टी बांधी। फिर बोला भाई! मुझसे डरो मत, मैं वह मुसलमान नहीं जो किसी का बुरा चेतूं। आखिर एक दिन खुदा को मुंह दिखाना है। मेरे लायक जो काम हो, वह बतलाओ। मुझे अपना भाई समझो। नाथू बड़ा प्रसन्न हुआ। मां जी की लोथ एक कोठरी में रखकर फिर दोनों ने मिलकर महासिंह को कुएं से निकाला। बाहर की वायु लगने से धीरे-धीरे महासिंह भी चैतन्य हो गया। नाथू ने दुर्गादास का वन जाना, मुसलमानों का धावा, मां जी का मरना और खुदाबख्श की कृति संक्षेप में कह सुनाई। महासिंह की आंखों में जल भर गया। कहने लगा नाथू! यह सब मुझ अभागे के कारण हुआ। अच्छा होता, कि मैं वहीं मारा जाता तो अपने आदमियों की यह दशा तो न देखता।
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