कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
कंटालिया के सरदार शमशेर खां के मारे जाने की खबर पाते ही औरंगजेब आपे में न रहा, तुरन्त आज्ञा दी दुर्गादास को जैसे हो सके, पकड़कर हमारे सामने लाया जाय, जीता हुआ या मरा हुआ, जैसा भी हो। दूसरे ही दिन मुगलों के चारों ओर से अरावली को घेर लिया। ऊपर चढ़कर राजपूतों का सामना करने का कोई साहस न करता था, इसलिए भूखों ही मार डालने की सलाह हुई। पहाड़ी पर किसी को न आने दें और न जाने दें। यहां तक कि लोथ भी खोलकर देख लेते थे। बेचारे दुर्गादास और उसके साथी राजपूतों को कन्दमूल भी खाने के लिए मिलना कठिन हो गया। आज तीन उपवास हो चुके थे। दुर्गादास अपने साथी राजपूतों का कष्ट न देख सका, बोला- भाइयो! आज नाथू को गये चार दिन हुए; परन्तु न आप ही आया और न सहायता के लिए कोई राजपूत ही भेजा। ठीक है, वह किसे भेजता, वह तो मानसिंह के पास भींख मांगने गया था। भाइयो! एक समय था, जब राजपूतों की वीरता संसार में बखानी जाती थी और थोड़े ही दिन हुए महाराज जसवन्तसिंह के मरने के बाद बीस हजार मुगल सिपाहियों पर ढाई सौ राजपूत टूट पड़े थे। अब आज वही राजपूत मुट्ठी भर मुगलों से डरकर घर से नहीं निकलते। भाइयो! अच्छा होगा कि तुम भी अपने-अपने घर जाओ, मुझे और मेरे अभागे देश को भगवान के भरोसे छोड़ दो। मेरे साथ क्यों भूखे मरोगे? मैं तो जो प्रण कर चुका, वह कर चुका। रहूंगा, तो स्वतन्त्र होकर, नहीं तो भू-माता के लिए लड़कर सदैव के लिए माता की पवित्र गोद में सोया रहूंगा।
दुर्गादास को उदास देखकर, राजपूतों ने उत्तेजित होकर कहा- ‘महाराज, जो आपका प्रण। जहां महाराज, वहीं हम। जब तक मारवाड़ स्वतन्त्र न कर लेंगे, जीते जी घर न लौटेंगे।
भूखों मरते हुए राजपूतों का ऐसा साहस देख, वीर दुर्गादास की मुर्झाई हुई आशा-लता एक बार फिर हरी हो गई। मुख पर प्रसन्नता झलक उठी। बोला अच्छा, तो भूखों मरने से लड़कर ही मरना अच्छा। सहायता मिले या न मिले! चलो, इस पहाड़ी के नीचे उतरें।
यह रास्ता बड़ा बीहड़ा था। मनुष्य तो क्या, पशु भी जाते डरते थे, परन्तु मरता क्या न करता। वही कहा- ‘वत थी। लोग नीचे उतरने लगे। इतने में दुर्गादास ने 'राम नाम सत्य है, सुना, वहीं ठहर गये। देखा, तो सामने से चार आदमी एक अर्थी ला रहे हैं; उसके पीछे एक आदमी अधजला कंडा और एक हांडी लटकाये है। पीछे-पीछे लगभग सौ आदमी और हैं, और सब-के-सब इधर ही आ रहे हैं। दुर्गादास को सन्देह हुआ कि श्मशान तो उधर है, यह सब हमारी ओर क्यों आ रहे हैं? जब उन आदमियों ने अर्थी वीर दुर्गादास के सामने उतारी और लगे खोलने तो दुर्गादास और भी चकराया। सोचने लगा है भगवान! यह बात क्या है? अर्थी खुलते ही एक वीर राजपूत उठकर दुर्गादास के पैरों पर गिर पड़ा।
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