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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


मैं क्या कर रहा हूं, तुझसे प्रयोजन?

दुर्गादास ने कहा- ‘क्या सीधे न बतायेगा?

इतना कहना था। कि तलवार खींच सामने आया और चाहता था, कि दुर्गादास पर वार करे, इसके पहले ही गंभीरसिंह ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। दुर्गादास ने स्त्री से पूछा बेटी, तुम कौन हो और यह दुष्ट कौन था? इसने तुमको कहां पाया?

बेटी ने कहा- ‘पिताजी, मैं माड़ों के राजा महासिंह की कन्या लालवा हूं और यह पापी चन्द्रसिंह था। अपने किये का फल पा गया। दुर्गादास ने पीछे किसी की आहट पाई, मुड़कर देखा, जसकरण और गंभीरसिंह दौड़े जा रहे हैं। दुर्गादास हाथ में तलवार लिये लालवा की रक्षा के लिए वहीं खड़ा रहा। थोड़ी देर में गंभीरसिंह और जसकरण हाथों में बागडोर पकड़े पांच घोड़े ले आये और बोले महाराज! इस पापी के तीन साथी और थे। हमने उन्हें देख लिया और पीछा किया। घोड़ों पर चढ़कर भाग जायें परन्तु यह कैसे होता? उन्हें तो मौत खींच लाई थी। वे तो नरक गये और घोड़े आपके लिए छोड़ गये।

लालवा ने गंभीरसिंह को बोली से पहचाना और पुकारा- भाई गंभीरसिंह! क्या आपत्ति में आप भी हमको नहीं पहचानते?

गंभीरसिंह ने कहा- ‘कौन लालवा! अरी, तू यहां पापियों में कैसे आ फंसी?

लालवा ने कहा- ‘माता तेजबा के कारण! भाई, तेजबा में क्षत्राणी की कुछ भी ऐंठ नहीं, वह सदैव राज-सुख की भूखी रहती है। कदाचित पापी चन्द्रसिंह ने किसी प्रकार लालच देकर तेजबा को फंसाया। लालवा मेरी अंगूठी पाकर अवश्य ही अंगूठी देनेवाले के साथ चली जायेगी।

गंभीरसिंह ने कहा- ‘बहन लालवा! यह कैसे विश्वास किया जाय, कि तेजबा और काका महासिंह को पकड़ लिया, तो हो सकता है कि अंगूठी उतार ली हो।

लालवा ने कहा- ‘नहीं, मान लिया जाय कि चन्द्रसिंह ने अंगूठी छीन ली थी, तो हमारा पता कैसे पाता, कि मैं सुरंग से बाबा महेन्द्रनाथ की गढ़ी में पहुंची, और वहीं रही। भाई ऐसे तर्कों से मुझे विश्वास हो गया कि तेजबा के सिवाय दूसरे ने कपट नहीं किया।

गंभीर बोला- अच्छा लालवा, यह तो बता कि जब तू चन्द्रसिंह को पहचानती थी, और उसके स्वभाव से परिचित थी, तब उसके मायाजाल में क्यों फंसी!

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