कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
जब ये लोग लश्कर में पहुंचे तो देखा कि मोहकमसिंह मेड़तिया भी उपस्थित हैं। अब तो वीरों की संख्या बहुत हो गई। मालूम होता है, मारवाड़ के भाग्य उदय हुए। दुर्गादास आशा-लता को फूलते देख बड़ा ही प्रसन्न हुआ। मोहकमसिंह से गले मिलकर बैठ गया और सलाह करने लगा। सोजितगढ़ पर चढ़ाई करने की राय ठहरी; क्योंकि महासिंह का छुड़ाना और सोजितगढ़ का अपनाना, एक पन्थ दो काज था। दुर्गादास ने वीर राजपूतों को उसी जंगल में विश्राम करने की आज्ञा दी, क्योंकि रात आधी से अधिक बीत चुकी थी। सोजितगढ़ पहुंचने का समय न था। चढ़ाई करने की घात रात ही में थी। दिन में मुठ्ठी भर राजपूत थे ही क्या, जो सोजितगढ़ में मुगल सिपाहियों का सामना करते; इसलिए रात वहीं काटी। दूसरे दिन जंगलों में छिपते-छिपते पहर रात बीते सोजितगढ़ की चौहद्दी पर पहुंचे और धावा करने के समय की प्रतीक्षा करने लगे।
गंभीरसिंह बड़ा जोशीला था। देश के लिए अपने प्राण हथेली पर लिये फिरता था। दुर्गादास से बिना पूछे-पाछे गढ़ी की टोह लेने चल दिया और बारह बजने के पहले ही लौट आया। गढ़ पर जय पाने के उपाय जो कुछ सोचे थे और जो कुछ देखा था।, दुर्गादास से कह सुनाया। सबने गंभीरसिंह की बुद्धि की बड़ी बड़ाई की और उसके कहे अनुसार अपने राजपूत वीरों को फाटक के आस-पास लगा दिया। रूपसिंह, जसकरणसिंह, मानसिंह और तेजकरण ये चारों गंभीसिंह के साथ, गढ़ी की पिछली दीवार के ऊपर चढ़ गये।
गंभीरसिंह ने उन चारों को तो फाटक के ऊपर वाली छत पर छिपा दिया और आप दक्खिन की ओर चला गया। कमर से चकमक निकाल कर छप्पर में आग लगा दी। अब तो जिसे देखो, वही आग बुझाने दौड़ा चला जाता है। घात पाकर चारों राजपूत कूद पड़े और गढ़ी का फाटक खोल दिया। फिर क्या था? दुर्गादास राजपूत वीरों को लेकर घुस पड़ा और लगी मारकाट होने। एकाएकी धावे ने मुगलों के पैर उखाड़ दिये। जलती आग में कौन प्राण देता है, भाग खड़े हुए। बहुतों ने हथियार छोड़ वीर दुर्गादास की शरण ली। हथियार छोड़े हुए बैरी पर सच्चे राजपूत कभी वीर नहीं करते। अस्तु, मारकाट बन्द हो गई। मानसिंह ने इनायत खां का पता लगाया। मालूम हुआ, वह पहले ही प्राण ले भागा।
गंभीरसिंह ने बादशाही झंडा उखाड़ फेंका और अपना राजपूती पचरंगा झंडा गढ़ पर फहरा दिया। जसकरण, तेजकरण तथा रूपसिंह को गढ़ की चौकसी सौंप दुर्गादास, मानसिंह और लालवा महाराज महासिंह के पास पहुंचे। देखा, महाराज एक पलंग पर पड़े-पड़े अपने दांतों से होंठ चबा रहे हैं, और न जाने मन-ही-मन क्या सोच रहे हैं। अभी घाव भी नहीं भरे थे, कराहते हुए जो करवट बदली तो सामने इन तीनों को देखा। बोले हाय! क्या तुम भी पकड़ आये? बेटा मानसिंह! बेचारी लालवा कहां होगी? पापी चन्द्रसिंह तो उसके पीछे ही पड़ा है। हमारा तो सर्वनाश ही हो गया। हाय! मृत्यु भी रूठ गई।
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