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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


हाजिरी का समय आया। बैरा मेज पर चाय रख गया। विनोद के इंतजार में चाय ठंडी हो गई। मैं बार-बार झुँझलाती थी, कभी भीतर जाती, कभी बाहर आती, ठान ली थी कि आज ज्यों ही महाशय आएँगे, ऐसा लताड़ूँगी कि वह भी याद करें। कह दूँगी आप अपना घर लीजिए, आपको अपना घर मुबारक रहे, मैं अपने घर चली जाऊँगी। इस तरह तो रोटियाँ वहाँ भी मिल जाएँगी। जाड़े के नौ बजने में देर ही क्या लगती है। विनोद का अभी पता नहीं। झल्लाई हुई उनके कमरे में गई कि एक पत्र लिखकर मेज पर रख दूँ-साफ़-साफ़ लिख दूँ कि इस तरह अगर रहना है, तो आप रहिए, मैं नहीं रह सकती। मैं जितना ही तरह देती जाती हूँ उतना ही तुम मुझे चिढ़ाते हो। बहन, उस क्रोध में संतप्त भावों की नदी-सी मन में उमड़ रही थी। अगर लिखने बैठती, तो पन्नों-के-पन्ने लिख डालती, लेकिन आह! मैं तो भाग जाने की धमकी ही दे रही थी, वह पहले ही भाग चुके थे। ज्यों ही मेज पर बैठी, मुझे पैड में उनका एक पत्र मिला। मैंने तुरंत उस पत्र को निकाल लिया और सरसरी निगाह से पढ़ा- मेरे हाथ काँपने लगे, पाँव थर-थराने लगे, जान पड़ा कमरा हिल रहा है, एक ठंडी, लंबी, हदय की चीरनेवाली आह खींचकर मैं कौंच पर गिर पड़ी। पत्र यह था-

''प्रिये, नौ महीने हुए, जब मुझे पहली बार तुम्हारे दर्शनों का सौभाग्य हुआ था। उस वक्त मैंने अपने को धन्य माना था। आज तुमसे वियोग का दुर्भाग्य हो रहा है, फिर भी मैं अपने को धन्य मानता हूँ। मुझे जाने का लेश-मात्र भी दुःख नहीं है, क्योंकि मैं जानता हूँ तुम खुश होगी। जब तुम मेरे साथ सुखी नहीं रह सकतीं, तो मैं जबरदस्ती क्यों पड़ा रहूँ। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि हम और तुम अलग हो जाएँ। मैं जैसा हूँ वैसा ही रहूँगा। तुम भी जैसी हो, वैसी ही रहोगी। फिर सुखी जीवन की संभावना कहाँ? मैं विवाह को आत्म-विकास का साधन समझता हूँ। स्त्री-पुरुष के संबंध का अगर कोई अर्थ है, तो यही है, वर्ना मैं विवाह की कोई जरूरत नहीं समझता। मानव-संतान बिना विवाह के भी जीवित रहेगी और शायद इससे अच्छे रूप में। वासना भी बिना विवाह के पूरी हो सकती है, घर के प्रबंध के लिए विवाह करने की जरूरत नहीं। जीविका एक बहुत ही गौण प्रश्न है, जिसे ईश्वर ने दो हाथ दिए हैं, वह कभी भूखा नहीं रह सकता। विवाह का उद्देश्य यही और केवल यही है कि स्त्री और पुरुष एक दूसरे की आत्मोन्नति में सहायक हों। जहाँ अनुराग हो, वहीं विवाह है और अनुराग ही आत्मोन्नति का मुख्य साधन है। जब अनुराग न रहा, तो विवाह भी न रहा, अनुराग के बिना विवाह का अर्थ ही नहीं।

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