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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


जिस वक्त मैंने तुम्हें पहली बार देखा था, तुम मुझे अनुराग की सजीव मूर्ति-सी नज़र आई थीं, तुममें सौंदर्य था, शिक्षा थी, प्रेम था, स्फूर्ति थी, उमंग थी। मैं मुग्ध हो गया। उस वक्त मेरी अंधी आँखों को यह न सूझा कि जहाँ तुममें इतने गुण थे, वहाँ चंचलता भी थी, जो इन सब गुणों पर पर्दा डाल देती है। तुम चंचल हो, ग़ज़ब की. चंचल जो उस वक्त मुझे न सूझा था। तुम ठीक वैसी ही हो, जैसी तुम्हारी दूसरी बहनें होती है, न कम न ज्यादा। मैंने तुमक स्वाधीन बनाना चाहा था, क्योंकि मेरी समझ में अपनी पूरी ऊँचाई तक पहुँचने के लिए इसी की सबसे अधिक ज़रूरत है। संसार-भर में पुरुषों के विरुद्ध क्यों इतना शोर मचा हुआ? इसीलिए कि हमने औरतों की आजादी छीन ली है और उन्हैं अपनी इच्छाओं की लौंडी बना रखा है। मैंने तुम्हें स्वाधीन कर दिया। मैं तुम्हारे ऊपर कोई अधिकार नहीं मानता। तुम अपनी स्वामिनी हो। मैं जब तक समझता था, तुम मेरे साथ स्वेच्छा से रहती हो, मुझे कोई चिंता न थी। अब मुझे मालूम हो रहा है, तुम स्वेच्छा से नहीं, संकोच या भय या बंधन के कारण रहती हो। दो-ही चार-दिन पहले मुझ पर यह बात खुली है। इसलिए अब मैं तुम्हारे सुख के मार्ग में बाधा नहीं चाहता, मैं कहीं भागकर नहीं जा रहा हूँ। केवल तुम्हारे रास्ते से हटा जा रहा हूँ और इतनी दूर हटा जा रहा हूँ कि तुम्हें मेरी ओर से पूरी निश्चिंतता हो जाए। अगर मेरे बग़ैर तुम्हारा जीवन अधिक सुंदर हो सकता है, तो मैं तुम्हें जबरन नहीं रखना चाहता। अगर मैं समझता कि तुम मेरे सुख के मार्ग में बाधक हो रही हो, तो मैंने तुमसे साफ़-साफ़ कह दिया होता। मैं धर्म और नीति का ढोंग नहीं मानता, केवल आत्मा का संतोष चाहता हूँ। अपने लिए भी, तुम्हारे लिए भी। जीवन का तत्त्व यही है, मूल्य यही है। मैंने डेस्क में अपने विभाग के अध्यक्ष के नाम एक पत्र लिखकर रख दिया है। वह उनके पास भेज देना। रुपए की कोई चिंता मत करना। मेरे एकाउंट में अभी इतने रुपए हैं, जो तुम्हारे लिए कई महीने को काफ़ी हैं, और उस वक्त तक मिलते रहेंगे, जब तक तुम लेना चाहोगी। मैं समझता हूँ मैंने अपना भाग स्पष्ट कर दिया है। इससे अधिक स्पष्ट मैं नहीं करना चाहता। जिस वक्त तुम्हारी इच्छा मुझसे मिलने की हो, बैंक से मेरा पता पूछ लेना। मगर दो-चार दिन के बाद। घबड़ाने की कोई बात नहीं। मैं स्त्री को अबला या अपंग ही नहीं समझता। वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकती है - अगर करना चाहे। अगर अब या अब से 2-4 महीना, 2-4 साल, पीछे तुम्हें मेरी याद आवे, तुम समझो कि मेरे साथ सुखी रह सकती हो, तो मुझे केवल दो-शब्द लिखकर डाल देना। मैं तुरंत आ जाऊँगा। क्योंकि मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है। तुम्हारे साथ मेरे जीवन के जितने दिन कटे हैं, वह मेरे लिए स्वर्ग-स्वप्न के दिन होंगे। जब तक जिऊँगा, इस जीवन की आनंद-स्मृतियों को हृदय में संचित रखूँगा। आह! इतनी देर तक मन को रोके रहने के बाद आँखों से एक बूँद आँसू गिर ही पड़ा। क्षमा करना, मैंने तुम्हें 'चंचल' कहा है। अंचचल कौन है? जानता हूँ कि तुमने मुझे अपने हृदय से निकालकर फेंक दिया है, फिर भी इस एक घंटे में कितनी बार तुमको देख-देखकर लौट आया हूँ। मगर इन बातों को लिखकर मैं तुम्हारी दया को उकसाना नहीं चाहता, तुमने वही किया, जिसका मेरी नीति में तुमको अधिकार था है, और रहेगा। मैं विवाह में आत्मा को सर्वोपरि रखना चाहता हूँ। स्त्री और पुरुष में मैं वही प्रेम चाहता हूँ जो दो स्वाधीन व्यक्तियों में होता है, वह प्रेम नहीं, जिसका आधार पराधीनता है।

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