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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


उसने आकर कहा- ''कमरे में तो कोई नहीं है, खूँटी पर कपड़े भी नहीं हैं।''

मैंने पूछा- ''क्या और भी कभी इस तरह अम्माँजी से रूठे हैं?''

महरी बोली- ''कभी नहीं बहू ऐसा सीधा तो मैंने लड़का ही नहीं देखा। मालकिन के सामने कभी सिर नहीं उठाते थे। आज न जाने क्यों चले गए।''

मुझे आशा थी कि दोपहर को भोजन के समय वह आ जाएँगे, लेकिन दोपहर को कौन कहे, शाम भी हो गई और उनका पता नहीं। सारी रात जागती रही। द्वार की ओर कान लगे हुए थे। मगर रात भी उसी तरह गुज़र गई। बहन, इस प्रकार पूरे तीन दिन बीत गए। उस वक्त तुम मुझे देखतीं तो पहचान न सकतीं। रोते-रोते आँखें लाल हो गई थीं। इन तीन दिनों में एक पल भी नहीं सोई और भूख का तो जिक्र ही क्या। पानी तक न पिया। प्यास ही न लगती थी। मालूम होता था देह में प्राण ही नहीं है। सारे घर में मातम-सा छाया हुआ था। अम्माजी भोजन करने दोनों वक्त जाती थीं, पर मुँह जूठा करके चली आती थीं। दोनों ननदों की हँसी और चुहल भी ग़ायब हो गई थी। छोटी ननदजी तो मुझसे अपना अपराध क्षमा कराने आई।

चौथे दिन सबेरे रसोइए ने आकर मुझसे कहा- ''बाबूजी तो अभी मुझे दशाश्वमेध घाट पर मिले थे। मैं उन्हें देखते ही लपककर उनके पास जा पहुँचा और बोला-भैया, घर क्यों नहीं चलते। सब लोग घबडाए हुए हैं। बहूजी ने तीन दिन से पानी तक नहीं पिया। उनका हाल बहुत बुरा है। यह सुनकर वह कुछ सोच में पड़ गए, फिर बोले- ''बहूजी ने क्यों दाना-पानी छोड़ रखा है, जाकर कह देना जिस आराम के लिए उस घर को न छोड़ सकीं उससे क्या इतनी जल्द जी भर गया।''

अम्माँजी उसी समय आँगन में आ गई। महराज की बातों की भनक कानों में पड़ गई, बोलीं- ''क्या है अलगू क्या आनंद मिला या?''

महराज- ''हाँ बड़ी बहू अभी दशाश्वमेध घाट पर मिले थे। मैंने कहा, घर क्यों नहीं चलते, तो बोले-उस घर में मेरा कौन बैठा हुआ है।''

अम्माँ- ''कहा नहीं, और कोई अपना नहीं है तो स्त्री तो अपनी है। उसकी जान क्यों लेते हो।''

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