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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


महराज- ''मैंने बहुत समझाया बड़ी बहू पर वह टस-से-मस न हुए।''

अम्माँ- ''करता क्या है?''

महराज- ''यह तो मैंने नहीं पूछा, पर चेहरा बहुत उतरा हुआ था।''

अम्माँ- ''ज्यों-ज्यों तुम बूढ़े होतs जाते हो, शायद सठियाते जाते हो। इतना तो पूछा होता कहाँ रहते हो, कहाँ खाते-पीते हो। तुम्हें चाहिए था उसका हाथ पकड़ लेते और खींचकर ले आते, मगर तुम नमकहरामों को अपने हलवे-माँडे से मतलब, चाहे कोई मरे या जिए। दोनों वक्त बढ़-चढ़कर हाथ मारते हो और मूछों पर ताव देते हो। तुम्हें इसकी क्या परवा है कि घर में दूसरा कोई खाता है या नहीं। मैं तो परवाह न करती, वह आए या न आए। मेरा धर्म पालना-पोसना था, पाल-पोस दिया। अब जहाँ चाहे रहे पर इस बहू को क्या करूँ जो रो-रोकर प्राण दिए डालती है। तुम्हें ईश्वर ने आँखें दी हैं, उसकी हालत देख रहे हो, क्या मुँह से इतना भी न फूटा कि बहू अन्न-जल त्याग किए पड़ी हुई है।''

महराज- ''बहूजी, नारायन जानते हैं मैंने बहुत तरह समझाया। मगर वह तो जैसे भागे जाते थे। फिर मैं क्या करता।''

अम्माँ- ''समझाया नहीं अपना सिर। तुम समझाते और वह यों हीं चला जाता। क्या सारी लच्छेदार बातें मुझी से करने को हैं। इस बहू को मैं क्या कहूँ। मेरे पति ने मुझसे इतनी बेरुखी की होती, तो मैं उसकी सूरत न देखती, पर इस पर उसने न जाने कौन-सा जादू कर दिया है। ऐसे उदासियों को तो कुलटा चाहिए जो उन्हें तिगनी का नाच नचावे।''

कोई आध घंटे बाद कहार ने आकर कहा- ''बाबूजी आकर कमरे में बैठे हुए हैं। मेरा कलेजा धक-धक करने लगा। जी चाहता था कि जाकर पकड़ लाऊँ, पर अम्माँजी का हृदय सचमुच वज है। बोलीं- ''जाकर कह दे, यहाँ उनका कौन बैठा हुआ है, जो आकर बैठे हैं।''

मैंने हाथ जोड़कर कहा- ''अम्माँ जी उन्हें अंदर बुला लीजिए कहीं फिर न चले जाएं।'' अम्माँ- ''यहाँ उसका कौन बैठा हुआ है जो आएगा। मैं तो अंदर क़दम न रखने दूँ।''

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