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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


अम्माँजी तो बिगड रही थी, उधर छोटी ननदजी जाकर आनंद बाबू को लाई। सचमुच उनका चेहरा उतरा हुआ था, जैसे महीनों का मरीज हो। ननदजी उन्हें इस तरह खींचे लाती थीं, जैसे कोई लड़की ससुराल जा रही हो। अम्माँजी ने मुस्कराकर कहा- ''इसे यहाँ क्यों लाई? यहाँ इसका कौन बैठा हुआ है?''

आनंद सिर झुकाए अपराधियों की भाँति खड़े थे। ज़बान न खुलती थी। अम्माँजी ने फिर पूछा- ''चार दिन कहाँ थे?''

''कहीं नहीं, यहीं तो था।''

''खूब चैन से रहे होगे।''

''जी हाँ, कोई तकलीफ़ न थी।''

''वह तो सूरत ही से मालूम हो रहा है।''

ननदजी जलपान के लिए मिठाई लाई। आनंद मिठाई खाते इस तरह झेंप रहे थे, मानो ससुराल आए हों! फिर माताजी उन्हें लिए हुए अपने कमरे में चली गई। वहाँ आध घंटे तक माता और पुत्र मैं बातें होती रहीं। मैं कान लगाए हुए थी, पर साफ़ कुछ न सुनाई देता था। हाँ, ऐसा मालूम होता था कि कभी माताजी रोती हैं और कभी आनंद। माताजी जब पूजा करने निकलीं, तो उनकी आँखें लाल थीं। आनंद वहाँ से निकले, तो सीधे मेरे कमरे में आए। मैं उन्हें आते देख चटपट मुँह ढाँपकर चारपाई पर पड़ रही, मानो बेखबर सो रही हूँ। वह कमरे में आए, मुझे चारपाई पर पड़े देखा, मेरे समीप आकर एक बार धीरे से पुकारा और लौट पड़े। मुझे जगाने की हिम्मत न पड़ी। मुझे जो कष्ट हो रहा था इसका एकमात्र कारण अपने को समझकर वह मन-ही-मन दुखी हो रहे थे। मैंने अनुमान किया था, वह मुझे उठावेंगे, मैं मान करूँगी, वह मनावेंगे, मगर सारे मंसूबे खाक में मिल गए। उन्हें लौटते देखकर मुझसे न रहा गया। मैं हकबकाकर उठ बैठी और चारपाई से नीचे उतरने लगी, मगर न जाने क्यों मेरे पैर लड़खड़ाए और ऐसा जान पड़ा मैं गिरी जाती हूँ। सहसा आनंद ने पीछे फिरकर मुझे सँभाल लिया और बोले- ''लेट जाव, लेट जाव, मैं कुरसी पर बैठा जाता हूँ। यह तुमने अपनी क्या गत बना रखी है।''

मैंने अपने को संभालकर कहा- ''मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ। आपने कैसे कष्ट किया?''

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