कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21 प्रेमचन्द की कहानियाँ 21प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग
चिंता.- (सोना से) 'छाती फटी जाती है।'
सोना को बालकों पर दया आयी। बेचारे इतनी देर देवोपम धैर्य के साथ बैठे थे। बस चलता, तो कुत्तो का गला घोंट देती। बोली- लरकन का तो दोष नहीं परत है। इन्हें काहे नहीं खवाय देत कोऊ।'
चिंता.- 'मोटेराम महादुष्ट है। इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है।'
सोना- 'ऐसे तो बड़े विद्वान बने रहैं। अब काहे नाहीं बोलत बनत। मुँह में दही जम गया, जीभै नहीं खुलत है।'
चिंता.- 'सत्य कहता हूँ, रानी को चकमा दे देता। उस दुष्ट के मारे सब खेल बिगड़ गया। सारी अभिलाषाएँ मन में रह गयीं। ऐसे पदार्थ अब कहाँ मिल सकते हैं?
सोना- 'सारी मनुसई निकल गयी। घर ही में गरजै के सेर हैं।'
रानी ने भंडारी को बुला कर कहा, 'इन छोटे-छोटे तीनों बच्चों को खिला दो। ये बेचारे क्यों भूखों मरें। क्यों फेकूराम, मिठाई खाओगे !'
फेकू.- 'इसीलिए तो आये हैं।'
रानी- 'कितनी मिठाई खाओगे?'
फेकू. - बहुत-सी (हाथों से बता कर) इतनी !'
रानी - 'अच्छी बात है। जितनी खाओगे उतनी मिलेगी; पर जो बात मैं पूछूँ, वह बतानी पड़ेगी। बताओगे न?'
फेकू. - 'हाँ बताऊँगा, पूछिए ! '
रानी- 'झूठ बोले, तो एक मिठाई न मिलेगी। समझ गये।'
फेकू.- 'मत दीजिएगा। मैं झूठ बोलूँगा ही नहीं।'
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