कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21 प्रेमचन्द की कहानियाँ 21प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग
रानी- 'अपने पिता का नाम बताओ।'
मोटे- 'बालकों को हरदम सब बातें स्मरण नहीं रहतीं। उसने तो आते ही आते बता दिया था।'
रानी- 'मैं फिर पूछती हूँ, इसमें आपकी क्या हानि है?'
चिंता.- 'नाम पूछने में कोई हर्ज नहीं।
मोटे- 'तुम चुप रहो चिंतामणि, नहीं तो ठीक न होगा। मेरे क्रोध को अभी तुम नहीं जानते। दबा बैठूँगा, तो रोते भागोगे।'
रानी- 'आप तो व्यर्थ इतना क्रोध कर रहे हैं। बोलो फेकूराम, चुप क्यों हो, फिर मिठाई न पाओगे।
चिंता.- 'महारानी की इतनी दया-दृष्टि तुम्हारे ऊपर है, बता दो बेटा !'
मोटे- 'चिंतामणि जी, मैं देख रहा हूँ, तुम्हारे अदिन आये हैं। वह नहीं बताता, तुम्हारा साझा, आये वहाँ से बड़े खैरख्वाह बन के।'
सोना- 'अरे हाँ, लरकन से ई सब पँवारा से का मतलब। तुमका धरम परे मिठाई देव, न धरम परे न देव। ई का कि बाप का नाम बताओ तब मिठाई देव।'
फेकूराम ने धीरे से कोई नाम लिया। इस पर पंडित जी ने उसे इतने जोर से डाँटा कि उसकी आधी बात मुँह में ही रह गयी।
रानी- 'क्यों डाँटते हो, उसे बोलने क्यों नहीं देते? बोलो बेटा !'
मोटे- 'आप हमें अपने द्वार पर बुला कर हमारा अपमान कर रही हैं।'
चिंता.- 'इसमें अपमान की तो कोई बात नहीं है, भाई !'
मोटे- 'अब हम इस द्वार पर कभी न आयेंगे। यहाँ सत्पुरुषों का अपमान किया जाता है।'
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