कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21 प्रेमचन्द की कहानियाँ 21प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग
अलगू- कहिए तो मैं चिंतामणि को एक पटकन दूँ।
मोटे- 'नहीं बेटा, दुष्टों को परमात्मा स्वयं दंड देता है। चलो, यहाँ से चलें। अब भूल कर यहाँ न आयेंगे। खिलाना न पिलाना, द्वार पर बुला कर ब्राह्मणों का अपमान करना। तभी तो देश में आग लगी हुई है।'
चिंता.- 'मोटेराम, 'महारानी के सामने तुम्हें इतनी कटु बातें न करनी चाहिए।'
मोटे- 'बस चुप ही रहना, नहीं तो सारा क्रोध तुम्हारे ही सिर जायगा। माता-पिता का पता नहीं, ब्राह्मण बनने चले हैं। तुम्हें कौन कहता है ब्राह्मण?'
चिंता.- 'जो कुछ मन चाहे, कह लो। चन्द्रमा पर थूकने से थूक अपने ही मुँह पर पड़ता है। जब तुम धर्म का एक लक्षण नहीं जानते, तब तुमसे क्या बातें करूँ? ब्राह्मण को धैर्य रखना चाहिए।'
मोटे- 'पेट के गुलाम हो। ठकुरसोहाती कर रहे हो कि एकाध पत्तल मिल जाए। यहाँ मर्यादा का पालन करते हैं !
चिंता- 'कह तो दिया भाई कि तुम बड़े, मैं छोटा, अब और क्या कहूँ। तुम सत्य कहते होगे, मैं ब्राह्मण नहीं शूद्र हूँ।'
रानी- 'ऐसा न कहिए चिंतामणि जी।'
'इसका बदला न लिया तो कहना !' यह कहते हुए पंडित मोटेराम बालक-वृंद के साथ बाहर चले आये और भाग्य को कोसते हुए घर को चले। बार-बार पछता रहे थे कि दुष्ट चिंतामणि को क्यों बुला लाया।
सोना ने कहा, 'भंडा फूटत-फूटत बच गया। फेकुआ नाँव बताय देता। काहे रे, अपने बाप केर नाँव बताय देते!'
फेकू.- 'और क्या। वे तो सच-सच पूछती थीं !'
मोटे- 'चिंतामणि ने रंग जमा लिया, अब आनंद से भोजन करेगा।'
सोना- 'तुम्हार एको विद्या काम न आयी। ऊ तौन बाजी मार लैगा।'
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