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प्रेमचन्द की कहानियाँ 22

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9783

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बाइसवाँ भाग


‘और जो उन्होंने बहस शुरू कर दी? उनकी दलीलों का आप जवाब दे सकते हैं?’

‘वाह! और मैंने उम्र भर किया क्या है? पहले तो दलील का जवाब दलील से देता हूँ। जब इससे काम नहीं चलता तो हाथ-पाँव से भी काम लेता हूँ। कितने ही शास्त्रार्थों मंख सम्मिलित हुआ हूँ और कभी परास्त होकर नहीं आया। बड़े-बड़े महामहोपाध्यायों को गुड़-हल्दी पिलाकर छोड़ दिया।

सज्जन ने एक क्षण तक विचार किया और फिर आने का वादा करके चले गये। तब से अब तक सूरत नहीं दिखाई।

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6. पछतावा  

पंडित दुर्गानाथ जब कॉलेज से निकले तो उनके सामने जीवन-निर्वाह की चिंता उपस्थित हुई। वे दयालु और धार्मिक पुरुष थे। इच्छा थी कि ऐसा काम करना चाहिए जिससे अपना जीवन भी साधारणत: सुखपूर्वक व्यतीत हो और दूसरों के साथ भलाई और सदाचरण का भी अवसर मिले। वे सोचने लगे-यदि किसी कार्यालय में क्लर्क बन जाऊँ तो अपना निर्वाह तो हो सकता है, किंतु सर्वसाधारण से कुछ भी संबंध न रहेगा। वकालत में प्रविष्ट हो जाऊँ तो दोनों बातें संभव हैं, किंतु अनेकानेक यत्न करने पर भी अपने को पवित्र रखना कठिन होगा। पुलिस विभाग में दीन-पालन और परोपकार के लिए बहुत से अवसर मिलते रहते हैं; किंतु एक स्वतंत्र और सद्विचार-प्रिय मनुष्य के लिए वहाँ की हवा हानिप्रद है। शासन विभाग में नियम और नीतियों की भरमार रहती है। कितना ही चाहो पर वहाँ कड़ाई और डाँट-डपट से बचे रहना असंभव है। इसी प्रकार बहुत सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने निश्चय किया कि किसी जमींदार के यहाँ 'मुख्तार आम' बन जाना चाहिए। वेतन तो अवश्य कम मिलेगा, किंतु दीन-खेतिहरों से रात-दिन संबंध रहेगा-उनके साथ सद्व्यवहार का अवसर मिलेगा। साधारण जीवन निर्वाह होगा और विचार दृढ़ होंगे।

कुँवर विशालसिंह जी एक संपत्तिशाली जमींदार थे। पं. दुर्गानाथ ने उनके पास जाकर प्रार्थना की कि मुझे भी अपनी सेवा में रखकर कृतार्थ कीजिए। कुँवर साहब ने इन्हें सिर से पैर तक देखा और कहा- ''पंडितजी, आपको अपने यहाँ रखने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होती, किंतु आपके योग्य मेरे यहाँ कोई स्थान नहीं देख पड़ता।''

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