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प्रेमचन्द की कहानियाँ 22

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9783

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बाइसवाँ भाग


दुर्गानाथ ने कहा- ''मेरे लिए किसी विशेष स्थान की आवश्यकता नहीं है। मैं हर एक काम कर सकता हूँ। वेतन आप जो कुछ प्रसन्नतापूर्वक देंगे, मैं स्वीकार करूँगा। मैंने तो यह संकल्प कर लिया है कि सिवा किसी रईस के और किसी की नौकरी न करूँगा।''

कुँवर विशालसिंह ने अभिमान से कहा- ''रईस की नौकरी नहीं राज्य है। मैं अपने चपरासियों को दो रुपया माहवार देता हूँ और वे तंजेब के अँगरखे पहनकर निकलते हैं। उनके दरवाजों पर घोड़े बँधे हुए हैं। मेरे कारिंदे पाँच रुपए से अधिक नहीं पाते, किंतु शादी-विवाह वकीलों के यहाँ करते हैं। न जाने उनकी कमाई में क्या बरकत होती है! बरसों तनख्वाह का हिसाब नहीं करते। कितने ऐसे हैं जो बिना तनख्वाह के कारिंदगी या चपरासगीरी को तैयार बैठे हैं, परंतु अपना यह नियम नहीं। समझ लीजिए, मुख्तार आम अपने इलाक़े में एक बड़े जमींदार से भी अधिक रौब रखता है। उसका ठाटबाट, उसकी हुकूमत छोटे-छोटे राजाओं में कम नहीं। जिसे इस नौकरी का चस्का लग गया है, उसके सामने तहसीलदारी झूठी है।''

पंडित दुर्गानाथ ने कुँवर साहब की बातों का समर्थन न किया जैसा कि करना उनको सभ्यतानुसार उचित था। वे दुनियादारी में अभी कच्चे थे, बोले- ''मुझे अब तक किसी रईस की नौकरी का चस्का नहीं लगा है। मैं तो अभी कॉलेज से निकला आता हूँ और न मैं इन कारणों से नौकरी करना चाहता हूँ जिनका आपने वर्णन किया, किंतु इतने कम वेतन में निर्वाह न होगा। आपके और नौकर असामियों का गला दबाते होंगे। मुझसे मरते समय तक ऐसे कार्य न होंगे। यदि सच्चे नौकर का सम्मान होना निश्चय है तो मुझे विश्वास है कि बहुत शीघ्र आप मुझसे प्रसन्न हो जाएँगे।''

कुँवर साहब ने बड़ी दृढ़ता से कहा- ''हाँ, यह तो निश्चय है कि सत्यवादी मनुष्य का आदर सब कहीं होता है, किंतु मेरे यहाँ तनख्वाह अधिक नहीं दी जाती।''

जमींदार के इस प्रतिष्ठा-शून्य उत्तर को सुनकर पंडितजी कुछ खिन्न-हृदय से बोले- ''तो फिर मजबूरी है। मेरे द्वारा इस समय कुछ कष्ट आपको पहुँचा हो तो क्षमा कीजिएगा, किंतु मैं यह आप से कह सकता हूँ कि ईमानदार आदमी आपको इतना सस्ता न मिलेगा।''

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