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प्रेमचन्द की कहानियाँ 26

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9787

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छब्बीसवाँ भाग


एक दिन दोपहर के समय लालबिहारी सिंह चिड़िया लिये हुए आया और भावज से कहा– जल्दी पका दो, मुझे भूख लगी है। आनन्दी भोजन बनाकर इनकी राह देख रही थी। अब यह नया व्यंजन बनाने बैठी। हांडी में देखा, तो घी पाव भर से अधिक न था। बड़े घर की बेटी, किफायत क्या जाने। उसने सब घी मांस में डाल दिया। लालबिहारी खाने बैठा, तो दाल में घी न था, बोला– दाल में घी क्यों नहीं छोड़ा?

आनन्दी ने कहा– घी सब माँस में पड़ गया।

लालबिहारी जोर से बोला– अभी परसों घी आया है। इतनी जल्दी उठ गया?

आनन्दी ने उत्तर दिया– आज तो कुल पाव भर रह गया होगा। वह सब मैंने मांस में डाल दिया।

जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य जरा-जरा सी बात पर तिनक जाता है।

लालबिहारी को भावज की यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई। तिनक कर बोला– मैके में तो चाहे घी की नदी बहती है!

स्त्री गालियाँ सह लेती है, मार भी सह लेती है, पर मैके की निंदा उससे नहीं सही जाती। आनन्दी मुँह फेर कर बोली– हाथी मरा भी तो नौ लाख का! वहाँ इतना घी नित्य नाई-कहार खा जाते हैं।

लालबिहारी जल गया, थाली उठाकर पलट दी और बोला– जी चाहता है, जीभ पकड़ कर खींच लूँ।

आनन्दी को भी क्रोध आ गया। मुँह लाल हो गया, बोली– वह होते तो आज इसका मजा चखा देते।

अब अपढ़, उजड्ड ठाकुर से न रहा गया। उसकी स्त्री एक साधारण जमींदार की बेटी थी। जब जी चाहता, उस पर हाथ साफ कर लिया करता था। उसने खड़ाऊँ उठाकर आनन्दी की ओर जोर से फेंकी, और बोला– जिसके गुमान पर भूली हुई हो, उसे भी देखूँगा और तुम्हें भी।

आनन्दी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी, सिर बच गया; पर अँगुली में बड़ी चोट आई। क्रोध के मारे हवा से हिलते हुए पत्ते की भाँति काँपती हुई अपने कमरे में आकर खड़ी हो गई। स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषत्व का घमंड होता है। आनन्दी लहू का घूँट पी कर रह गयी।

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