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प्रेमचन्द की कहानियाँ 26

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9787

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छब्बीसवाँ भाग


श्रीकंठ सिंह शनिवार को घर आया करते थे। बृहस्पति को यह घटना हुई। दो दिन तक आनन्दी कोपभवन में रही। न कुछ खाया, न पिया, उनकी बाट देखती रही। अन्त में शनिवार को वह नियमानुकूल संध्या समय घर आये और बाहर बैठ कर कुछ इधर-उधर की बातें, कुछ देश और काल सम्बन्धी समाचार, तथा कुछ नये मुकदमों आदि की चर्चा करने लगे। यह वार्त्तालाप दस बजे रात तक होता रहा। गाँव के भद्र पुरुषों को इन बातों में ऐसा आनन्द मिलता था कि खाने-पीने की भी सुधि न रहती थी। श्रीकंठ को पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता था। यह दो-तीन घंटे आनन्दी ने बड़े कष्टों से काटे। किसी तरह भोजन का समय आया, पंचायत उठी। जब एकांत हुआ तब लालबिहारी ने कहा– भैया, आप जरा भाभी को समझा दीजिएगा कि मुँह सँभालकर बातचीत किया करें, नहीं तो एक दिन अनर्थ हो जायगा।

बेनीमाधव सिंह ने बेटे की ओर साक्षी दी– हाँ, बहू-बेटियों का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि पुरुषों के मुँह लगें।

लालबिहारी– वह बड़े घर की बेटी हैं, तो हम लोग भी कोई कुर्मी-कहार नहीं है।

श्रीकंठ ने चिंतित स्वर से पूछा– आखिर बात क्या हुई?

लालबिहारी ने कहा– कुछ भी नहीं, यों ही आप ही आप उलझ पड़ीं। मैके के सामने हम लोगों को कुछ समझती ही नहीं।

श्रीकंठ खा-पीकर आनन्दी के पास गये। वह भरी बैठी थी। हजरत भी कुछ तीखे थे। आनन्दी ने पूछा– चित्त तो प्रसन्न है?

श्रीकंठ बोले– बहुत प्रसन्न है, पर तुमने आजकल घर में यह क्या उपद्रव मचा रखा है?

आनन्दी की त्योरियों पर बल पड़ गये, झुँझलाहट के मारे बदन में ज्वाला-सी दहक उठी। बोली– जिसने तुम्हें यह आग लगायी है, उसे पाऊँ, मुँह झुलस दूँ।

श्रीकंठ– इतनी गरम क्यों होती हो, बात तो कहो?

आनन्दी–क्या कहूँ, यह मेरे भाग्य का फेर है, नहीं तो गँवार छोकरा, जिसको चपरासीगिरी करने का भी ढंग नहीं, मुझे खड़ाऊँ से मारकर यों न अकड़ता।

श्रीकंठ– सब साफ-साफ हाल कहो तो मालूम हो। मुझे तो कुछ पता नहीं।

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