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प्रेमचन्द की कहानियाँ 26

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9787

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छब्बीसवाँ भाग


कुंदन रोने लगी। जब जयगोपाल घर में आए तो उसने यह जिक्र छेड़ा। जयगोपाल बोले- ''मैं तो चाहता था कि बात तुम्हारे कान तक न पहुँचे। मुझे खुद बड़ा धोखा हुआ। बात यूँ है कि मैंने शेखरा का इंतजाम खुरूद के सुपुर्द कर दिया था, मगर खुरूद ने सरकारी लगान बाक़ी डाल दी और जब वह गाँव नीलाम पर चढ़ा तो उसे अपने नाम से खरीद लिया। मुझे भी तो कल मालूम हुआ।''

कुंदन- ''तो तुम उज्रदारी क्यों नहीं करते? ''

जयगोपाल- ''उज़दारी से अब कोई काम न चलेगा। अलावा इसके अपने भाँजे से मुकदमेबाजी करना बदनामी की बात है। लोग हँसी उड़ाएँगे।''

कुंदन को इत्मीनान नहीं हुआ। वह समझ गई, सब चालें नौनी को तबाह करने के लिए चली जा रही हैं। उसकी अक्ल अब कुछ काम नहीं करती थी। औरत इस मामलात को क्या समझे? मैं कैसे नौनी को बचाऊँ? क्या बेकसों का कोई मददगार नहीं है? क्या दुनिया में कोई इंसाफ़ करने वाला नहीं है? कोई मुझे कलक्टर साहब के पास ले चलता तो मैं उनसे सब हाल कह सुनाती। मुझे खुद जाना चाहिए। मैं बड़े लाट तक फ़रियाद ले जाऊँगी। मगर नौनी पर जुल्म न होने दूँगी।

उसके कुछ दिनों बाद नौनी बीमार पड़ा। बरसात के दिन थे। चारों तरफ़. मलेरिया फैला हुआ था। नौनी भी उसका शिकार हुआ। तीन दिन बुखार न उतरा और न बच्चे ने आँखें खोलीं। गाँव में एक वैद्य जी थे। दोनों वक्त आते और दवा देते, मगर उनकी दवाओं से रोग में कमी न हुई। चौथे दिन कुंदन ने जयगोपाल से कहा- ''जाकर शहर से सारदा बाबू को ले आते तो अच्छा होता। नौनी का बुखार अब तक नहीं उतरा।''

जयगोपाल ने लापरवाही से कहा- ''सारदा बाबू जाने शहर में हैं या नहीं। अभी दो-चार रोज और वैद्य जी की दवा खिलाओ।''

कुंदन-- ''वैद्यजी की दवा से कोई फ़ायदा नहीं हुआ और उसकी हालत खराब होती जाती है।''

जयगोपाल- ''अभी कुल तीन दिन ही तो बुखार आया है।''

कुंदन- ''तुम जरा उसे चल के देखो तो, कैसा पीला हो गया है।''

जयगोपाल- ''अच्छा, कल मैं डाँक्टर बाबू के पास जाऊँगा।''

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