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प्रेमचन्द की कहानियाँ 26

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9787

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छब्बीसवाँ भाग


जयगोपाल सबेरे उठे और दिन भर ग़ायब रहने के बाद शाम को खबर लाए कि डाँक्टर साहिब घर पर नहीं हैं, क़हीं नगर के आस-पास की छोटी आबादियों में गए हैं। कुंदन को शौहर की बातों पर यक़ीन न आया। रात को जब सब सो गए तो उसने नौनी को गोद ले लिया। गाँव से मिली हुई सारद नदी बहती थी। घाट पर आकर एक किश्ती किराए पर की और बारह बजे वह डाँक्टर साहिब के मकान पर पहुँची। सारदा बाबू उसके फैमिली डाँक्टर थे। देखते ही पहचान गए। कुंदन को इस हालत में देखकर उन्हें बहुत रंज हुआ। सूरते-हाल समझ गए। कुंदन के लिए दो कमरे खाली कर दिए। एक मेहरी का इंतजाम किया और नौनी के चिकित्सा में मसरूफ़ हुए।

रात गुज़री। तड़के जयगोपाल जामे से बाहर गुस्से से काँपते हुए पहुँचे और कुंदन से कहा- ''खैरियत चाहती हो तो इसी वक्त मेरे साथ घर चलो।''

कुंदन ने जवाब दिया- ''तुम इसी वक्त मेरा गला भी काट डालो तो मैं न जाऊँगी।''

जयगोपाल- 'अच्छा तो अब मेरे घर मत आना, समझी!'

कुंदन ने अबकी तुनक कर जवाब दिया- ''तुम्हारा घर! वह घर तो मेरे भाई का है।''

जयगोपाल घूँसा तानकर रह गया। उसी वक्त वहाँ से आकर रहने का मकान और बारा अपने बड़े लड़के के नाम लिखवा लिया और दूसरे दिन उसकी रजिस्ट्री भी हो गई।

कुंदन हफ्ता भर डाक्टर साहिब के यहाँ रही। नौनी की सेहत ठीक हो चली थी। उसका इरादा और एक हफ्ते-भर रहने का था। मगर घर और बाग के बिक्री होने की खबर ने उसे वहाँ न ठहरने दिया। दो-डेढ़ हजार की जायदाद हाथ से निकली जाती है। अपने बेटे को कुंदन उस वक्त गैर समझ रही थी। भाई बेटे से भी ज्यादा प्यारा हो गया था।

कलक्टर साहिब शरद ऋतु का दौरा कर रहे थे। शेखूपूरा में कयाम किया। सुबह के वक्त वह अपने खेमे में सामने बैठे हुए थे। आस-पास के ग्राम समूह से जमींदार और ताल्लुक़ेदार, अमीर सलाम करने को हाजिर हुए थे। बाबू जयगोपाल भी सियाह अलपाके की अचकन पहने, सफ़ेद पगड़ी बाँधे सलाम को हाज़िर हुए। साहिब बहादुर ने उनकी गैरमामूली तौर पर इज्जत की और उनके लिए कुर्सी मँगाई। जयगोपाल को सारे संसार की दौलत मिल गई। ऐसा खुश-नसीब कौन होगा? ज्ञानपुर के चक्रवर्ती और शाहगंज के चौधरी यही अरमान लिए बैकुंठ सिधार गए। जयगोपाल ने चारों तरफ़ गर्वपूर्ण भंगिमा से देखा। गाँव के बनिए और मजदूर उनकी यह इज्जत देखकर सकते में आ गए। अफ़सोस! सामगंज के मित्र बाबू यहाँ नहीं हैं, वर्ना देखते कि मेरी कैसी इज्ज़त है।

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