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प्रेमचन्द की कहानियाँ 26

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9787

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छब्बीसवाँ भाग


यकायक एक औरत सर से पैर तक चादर ओढ़े एक पाँच-साला लड़के की उँगली पकड़े आई और खड़ी हो गई। साहिब ने पूछा- ''तुम कौन हो?''

कुंदन बोली- ''हुजूर मैं इस गाँव की एक दु:खियारी औरत हूँ। आपके पास फ़रियाद लेकर आई हूँ।''

साहिब- ''अच्छा, इजलास के कमरे में चलो। हम अभी आता है।''

कुंदन- ''नहीं हुजूर, मेरी अर्ज़ यहीं सुन ली जाए।''

जयगोपाल के चेहरे पर एक रंग आता था और एक रंग जाता था। खिसियाए हुए बंदर की तरह कुंदन को घूर रहा था। अगर साहब को खौफ न होता तो वह जरूर उस पर हमला कर बैठता।

कुंदन कहने लगी- ''हुजूर, यह लड़का मेरा भाई है। मैं बाबू मधुसूदन की लड़की हूँ जिनका दो साल हुए इंतकाल हो गया। यह बाबू साहिब, जो आपके सामने बैठे हुए हैं, मेरे शौहर हैं। मेरे बाप का जब इंतक़ाल हुआ तो उन्होंने इन बाबू साहिब को अपने नाबालिग़ बच्चे का संरक्षक करार दिया और अपनी जमींदारी का दो आना इनके गुजारे के लिए वसीयत में लिख गए। मगर इन बाबू साहिब की अब नीयत बदली हुई है। यह मेरे गरीब भाई की सारी जायदाद अपने और अपने लड़कों के नाम करते जाते हैं। कोई इनका हाथ रोकने वाला नहीं। मैं इनकी बीवी हूँ। इनके काबू में हूँ कुछ बोल नहीं सकती। इसका नतीजा यह होगा कि हुजूर के राज में एक यतीम पर क़हर टूट जाएगा और उसकी जायदाद दूसरों के अधिकार में आ जाएगी। इसलिए मैं आपकी खिदमत में हाजिर हुई हूँ यह लड़का आपको सौंप रही हूँ। अब इसके साथ इंसाफ़ करना आपका धर्म है। आप जो मुनासिब समझें, वही करें।''

यह कहकर कुंदन खामोश हो गई। जयगोपाल ने क्रोधावेग से बीच में कई बार छेड़ने की जुर्रत की, मगर साहिब के तेवर देखकर खामोश हो गए। आखिर साहिब ने उनसे पूछा- ''यह सब सच है?''

जयगोपाल बोले- ''हुजूर, क्या अर्ज़ करूँ? बाबू मधुसूदन कर्ज छोड़ गए थे। सो हुजूर, कुछ जमीन रहन करके कर्ज अदा किया गया।''

साहिब- ''अच्छा-अच्छा, कुल काग़ज़ात हमारे सामने पेश करो।''

जयगोपाल- ''बहुत अच्छा हुजूर!''

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