कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 32 प्रेमचन्द की कहानियाँ 32प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग
डॉक्टर- इसकी तुम कुछ चिंता न करो, मैंने खूब सोच-विचार लिया है ! बल्कि अगर घर के किसी आदमी की शरारत है तो मैं उसके साथ और भी कड़ाई करना चाहता हूँ। बाहर का आदमी मेरे साथ छल करे तो क्षमा के योग्य है, पर घर के आदमी को मैं किसी प्रकार क्षमा नहीं कर सकता।
बुद्धू- तो हुजूर क्या चाहते हैं?
डॉक्टर- बस यही कि मेरे रुपये मिल जायँ और चोर किसी बड़े कष्ट में पड़ जाय।
बुद्धू- मूठ चला दूँ?
बुढ़िया- ना बेटा, मूठ के पास न जाना। न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े।
डॉक्टर- तुम मूठ चला दो, इसका जो कुछ मेहनताना और इनाम हो, मैं देने को तैयार हूँ।
बुढ़िया- बेटा, मैं फिर कहती हूँ, मूठ के फेर में मत पड़। कोई जोखम की बात आ पड़ेगी तो वही बाबूजी फिर तेरे सिर होंगे और तेरे बनाये कुछ न बनेगी। क्या जानता नहीं, मूठ का उतार कितना कठिन है?
बुद्धू- हाँ बाबू जी ! फिर एक बार अच्छी तरह सोच लीजिए। मूठ तो मैं चला दूँगा, लेकिन उसको उतारने का जिम्मा मैं नहीं ले सकता।
डॉक्टर- अभी कह तो दिया, मैं तुमसे उतारने को न कहूँगा, चलाओ भी तो।
बुद्धू ने आवश्यक सामान की एक लम्बी तालिका बनायी। डॉक्टर साहब ने सामान की अपेक्षा रुपये देना अधिक उचित समझा। बुद्धू राजी हो गया। डॉक्टर साहब चलते-चलते बोले- ऐसा मंतर चलाओ के सबेरा होते-होते चोर मेरे सामने माल लिये हुए आ जाय।
बुद्धू ने कहा- आप निसाखातिर रहें।
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