कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 32 प्रेमचन्द की कहानियाँ 32प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग
डॉक्टर साहब वहाँ से चले तो ग्यारह बजे थे। जाड़े की रात, कड़ाके की ठंड थी। उनकी माँ और स्त्री दोनों बैठी हुई उनकी राह देख रही थीं। उन्होंने जी को बहलाने के लिए बीच में एक अँगीठी रख ली थी, जिसका प्रभाव शरीर की अपेक्षा विचार पर अधिक पड़ता था। यहाँ कोयला विलास्य पदार्थ समझा जाता था। बुढ़िया महरी जगिया वहीं फटा टाट का टुकड़ा ओढ़े पड़ी थी। वह बार-बार उठ कर अपनी अँधेरी कोठरी में जाती, आले पर कुछ टटोल कर देखती और फिर अपनी जगह पर आ कर पड़ रहती। बार-बार पूछती, कितनी रात गयी होगी। जरा भी खटका होता तो चौंक पड़ती और चिंतित दृष्टि से इधर-उधर देखने लगती। आज डॉक्टर साहब ने नियम के प्रतिकूल क्यों इतनी देर लगायी, इसका सबको आश्चर्य था। ऐसे अवसर बहुत कम आते थे कि उन्हें रोगियों को देखने के लिए रात को जाना पड़ता हो। यदि कुछ लोग उनकी डाक्टरी के कायल भी थे, तो वे रात को उस गली में आने का साहस न करते थे। सभा-सोसाइटियों में जाने को उन्हें रुचि न थी। मित्रों से भी उनका मेल-जोल न था। माँ ने कहा- जाने कहाँ चला गया, खाना बिलकुल पानी हो गया।
अहल्या- आदमी जाता है तो कह कर जाता है, आधी रात से ऊपर हो गयी।
माँ- कोई ऐसी ही अटक हो गयी होगी, नहीं तो वह कब घर से बाहर निकलता है?
अहल्या- मैं तो अब सोने जाती हूँ, उनका जब जी चाहे आयें। कोई सारी रात बैठा पहरा देगा।
यही बातें हो रही थीं कि डॉक्टर साहब घर आ पहुँचे। अहल्या सँभल बैठी; जगिया उठकर खड़ी हो गयी और उनकी ओर सहमी हुई आँखों से ताकने लगी। माँ ने पूछा- आज कहाँ इतनी देर लगा दी?
डॉक्टर- तुम लोग तो सुख से बैठी हो न ! हमें देर हो गयी, इसकी तुम्हें क्या चिंता ! जाओ, सुख से सोओ, इन ऊपरी दिखावटी बातों से मैं धोखे में नहीं आता। अवसर पाओ तो गला काट लो, इस पर चली हो बात बनाने !
माँ- ने दुःखी हो कर कहा बेटा ! ऐसी जी दुखाने वाली बातें क्यों करते हो? घर में तुम्हारा कौन बैरी है जो तुम्हारा बुरा चेतेगा?
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